विक्रमादित्य के नौ रत्न – वराहमिहिर

varah mihir1वराहमिहिर (वरःमिहिर) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। उज्जैन के समीप कापित्थक अथवा ‘कपिथा (वर्तमान में कायथा) में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा। वरःमिहिर बचपन से ही अत्यन्त मेधावी और तेजस्वी थे। पिता आदित्यदास सूर्य के उपासक थे| मिहिर (मिहिर का अर्थ सूर्य) नें अपने पिता से भविष्य शास्त्र, परम्परागत गणित सीखकर इन क्षेत्रों में व्यापक शोध कार्य किया।

वराहमिहिर विक्रमाद्वित्य के नौ रत्नों में से ये एक रत्न थें. उसी समय के ज्योतिषी आर्यभट्ट के साथ मिलकर भी इन्होने ज्योतिष के फलित नियमों का प्रतिपादन किया. आर्यभट्ट इनके गुरु थें. और ज्योतिष की अनेक नियम इन्होने आर्यभट्ट से सीखें. आर्यभट्ट के मुख्य रुप से गणित विषय पर काम किया था, इसलिए इन्होनें ज्योतिष शास्त्रों में गणितीय गणना आर्यभट्ट से सिखी. आर्यभट्ट की तरह वराह मिहिर का भी कहना था कि पृथ्वी गोल है। पृथ्वीका आकार गेंदके समान है, यह तथ्य गेलेलियो से बहुत पूर्व ही उन्होंने विद्वानोंकी सभामें प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा सिद्ध कर दिखाया था । उनका निरीक्षण इस प्रकार था –

विज्ञान के इतिहास में वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि सभी वस्तुओं का पृथ्वी की ओर आकर्षित होना किसी अज्ञात बल का आभारी है। सदियों बाद ‘न्यूटन’ ने इस अज्ञात बल को ‘गुरुत्वाकर्षण बल’ नाम दिया। लेकिन उन्होंने एक बड़ी गलती भी की। उन्हें विश्वास था कि पृथ्वी गतिमान नहींहै उनका मानना था कि अगर यह घूम रही होती तो पक्षी पृथ्वी की गति की विपरीत दिशा में (पश्चिम कीओर) कर अपने घोसले में उसी समय वापस पहुंच जाते।

वराहमिहिर की मृत्यु ईस्वी सन् 587 में हुई। वराह मिहिर की मृत्यु के बाद ज्योतिष गणितज्ञ ब्रह्म गुप्त ( ग्रंथ- ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, खण्ड खाद्य), लल्ल(लल्ल सिद्धांत), वराह मिहिर के पुत्र पृथुयशा (होराष्ट पंचाशिका) और चतुर्वेद पृथदक स्वामी, भट्टोत्पन्न, श्रीपति, ब्रह्मदेव आदि ने ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथों पर टीका ग्रंथ लिखे।

वराहमिहिर ने ज्योतिष शास्त्र को अपनी प्रतिभा द्वारा बहुत विलक्षणता प्रदान की। वे भारतीय ज्योतिष शास्त्र के मार्तण्ड कहे जाते हैं। यद्यपि वराहमिहिर के समय तक (नारद संहिता आदि में) ज्योतिष शास्त्र संहिता, होरा तथा सिद्धांत- इन तीन भागों में विभक्त हो चुका था तथापि वराहमिहिर ने उन्हें और भी व्यवस्थित कर उसे वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया।

ज्योतिष के सिद्धांत स्कंध से संबद्ध इनके पंचसिद्धांतिका नामक ग्रंथ की यह विशेषता है कि इसमें वराहमिहिर ने अपना कोई सिद्धांत न देकर अपने समय तक के पूर्ववर्ती पांच आचार्यों (पितामह, वशिष्ठ, रोमश, पौलिश तथा सूर्य)- के सिद्धांतों (अभिमतों)- का संकलन कर महत्वपूर्ण कार्य किया है। इनकी ‘बृहत्संहिता-स्कंध’ का सबसे प्रौढ़ तथा मान्य ग्रंथ है। इसमें 106 अध्याय हैं। इस पर भट्टोत्पल की टीका बड़ी प्रसिद्ध है। फलित ज्योतिष का बृहज्जातक को दैवज्ञों का कंठहार ही है। इसमें 28 अध्याय हैं। इसमें स्वल्प में ही फलित ज्योतिष के सभी पक्षों का प्रामाणिक वर्णन है।

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