वराहमिहिर
तुम पहले व्यक्ति हो वराहमिहिर!
जो अवन्तिका से निकले
तो फैल गये अखंड भारत में,
उज्जयिनी में नहीं होकर भी
तुम उज्जयिनी में रहते हो।
कायथा की प्रस्तर-प्रतिमाएँ
तुम्हारी स्पर्शकथा से ही
जीवित हैं अभी तक।
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सदियाँ बीत गईं,
शिप्रातट से उठे
तो यमुनातट पर जा बैठे
बृहत्संहिता लेकर।
दिल्ली की राजसी चकाचौंध में
जिस एकांत को चुनकर
तुमने देवों की बस्ती बसाई,
वहाँ खड़ा हुआ मेरुस्तम्भ
तुम्हारी ही कीर्ति गा रहा है।
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तुम पहले व्यक्ति हो वराहमिहिर,
जो उज्जयिनी की काल-चेतना को
दिल्ली तक ले गये,
महरौली में स्तम्भ की नींव के भीतर
तुम ही हो वह वज्रलेप,
तुम ही हो अक्षर व्योम में डूबी
ज्योतिष्मती प्रार्थना।
वहाँ की नक्षत्रशाला में
तुम ही हो उज्जयिनी के दैदीप्यमान।
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मेरुस्तम्भ के चतुर्दिक्
घूमते ज्योतिपुरुषों को देख आया हूँ।
देख आया हूँ,
कि वहाँ घंटे-घड़ियाल-शंख
बज उठने की मुद्रा में हैं,
आरती की तैयारी है,
कोई चढ रहा है
सत्ताइस नक्षत्रों के ऊपर शिखर पर
विष्णुध्वज फहराने के लिये
बड़े वेग से।
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तुम हो वहाँ पर खड़े हुए
सनातन काल की आत्मा पर
ध्यान लगाकर।
तुम हो वहाँ पर,
तो यहाँ उज्जयिनी में भी रमे हो
महाकाल के पुण्यतीर्थ में रचे-बसे।
काल के प्रवाह में
तुम अनंत हो,
चाहे वहाँ रहो
या यहाँ उज्जयिनी में।