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Home विशेष साहित्य

काबुलीवाला

by Admin
April 29, 2015
in साहित्य, हिंदी लघुकथाएं
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रवीन्द्रनाथ टैगोर
मेरी पांच बरस की लड़की मिनी से क्षण भर भी बिना बात किये रहा नहीं जाता। संसार में जन्म लेने के बाद भाषा सीखने में उसने एक साल ही लगाया था। उसके बाद से जब तक वह जागती रहती है, उस समय का एक भी क्षण वह खामोश रहकर नष्ट नहीं करती है। उसकी मां कभी कभी धमका कर उसका मुंह बंद कर देती हैं, पर मैं ऎसा नहीं कर पाता। मिनी अगर खामोश रहे तो, तो वह ऎसी अजीब सी लगती है कि मुझसे उसकी चुप्पी ज्यादा देर तक सही नहीं जाती। यही कारण यही है कि मुझसे उसकी बातचीत कुछ ज्यादा उत्साह से चलती है।
सबेरे मैं उपन्यास का सत्रहवां अध्याय लिखने जा ही रहा था कि मिनी ने आकर शुरु कर दिया, “बाबू, रामदयाल दरबान काका को कौवा कह रहा था। वह कुछ नहीं जानता, है न बाबा?”
संसार की भाषाओं की विभिन्नता के बारे में मैं उसे ज्ञान देने ही वाला था कि उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया, “सुनो बाबू, भोला कह रहा था कि आसमान से हांथी सूंड़ से पानी बिखेरता है तभी बारिश होती है। ओ मां, भोला झूठ मूठ ही इतना बकता है! बस बकता ही रहता है, दिन रात बकता रहता है बाबू।”
इस बारे में मेरी राय का जरा भी इंतज़ार किये बिना ही वह अचानक पूंछ बैठी, “क्यों बाबू, अम्मा तुम्हारी कौन लगती है?”
मैंने मन ही मन कहा, “साली” और मुंह से कहा, “मिनी, तू जा, जाकर भोला के साथ खेल। मुझे अभी काम करना है। वह मेरी लिखने की मेज के पास मेरे पैरों के निकट बैठ गई और दोनों घुटने और हांथ हिला हिला कर, फुर्ती से मुंह चला-चलाकर रटने लगी, “आगड़ुम बागड़ुम घोड़ा दुम साजे।” उस समय मेरे उपन्यास के सत्रहवें अध्याय में प्रताप सिंह कंचन माला को लेकर अंधेरी रात में कारागार की ऊंची खिड़की से नीचे नदी के पानी में कूद रहे थे।
मेरा कमरा सड़क के किनारे था। यकायक मिनी अक्को बक्को तीन तिलक्को का खेल छोड़कर खिड़की के पास पहुंची और जोर जोर से पुकारने लगी, “काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला!”
गन्दे से ढीले कपड़े पहने , सिर पर पगड़ी बांधे, कन्धे पर झोली लटकाये और हांथ में अंगूर की दो चार पिटारियां लिये, एक लम्बा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देख मेरी बिटिया रानी के मन में कैसे भाव जगे होंगे यह बताना तो मुश्किल है, पर वह जोर जोर से उसे पुकार रही थी। मैंने सोंचा, अभी कन्धे पर झोली लटकाये एक आफत मेरे सिर पर सवार हो जायेगी और मेरा सत्रहवां अध्याय समाप्त होने से रह जायेगा।
लेकिन मिनी की पुकार पर जैसे ही काबुली ने हंस कर अपना चेहरा घुमाया और मेरे घर की ओर आने लगा, वैसे ही मिनी जान छुड़ाकर अन्दर भागी और लापता हो गई। उसके मन में एक अन्धविश्वास सा जम गया था कि झोली ढूंढने पर एकाध और मिन्नी जैसे जीवित इंसान मिल सकते हैं।
काबुली ने आकर हंसते हुये सलाम किया और खड़ा रहा। मैंने सोंचा, हालांकि प्रताप सिंह और कंचनमाला की दशा बड़े संकट में है, फिर भी इस आदमी को घर बुलाकर कुछ न खरीदना ठीक न होगा।
कुछ चीज़ें खरीदीं। उसके बाद इधर उधर की चर्चा भी होने लगी। अब्दुल रहमान से रूस, अंग्रेज और सीमान्त रक्षा नीति पर बातें होती रहीं।
अन्त में उठते समय उसने पूंछा, “बाबू जी, तुम्हारी लड़की कहां गई?”
मिनी के मन से बेकार का डर दूर करने के लिये मैंने उसे अंदर से बुलवा लिया। वह मुझसे सट कर खड़ी हो गई। सन्देह भरी दृष्टि से काबुली का चेहरा और उसकी झोली की ओर देखती रही। काबुली ने झोली से किशमिश और खुबानी देना चाहा, पर उसने किसी तरह से नहीं लिया। दुगने सन्देह के साथ वह मेरे घुटनों के साथ चिपकी रही। पहला परिचय इसी तरह हुआ।
कुछ दिनों बाद, एक सवेरे किसी जरूरत से घर से बाहर निकला तो देखा, मेरी बिटिया दरवाजे के पास बेंच पर बैठी बेहिचक बातें कर रही है। काबुली उसके पैरों के पास बैठा मुस्कुराता हुआ सुन रहा है, और बीच बीच में प्रसंग के अनुसार अपनी राय भी खिचड़ी भाषा में प्रदर्शित कर रहा है। मिनी के पांच साल की उम्र के अनुभव में बाबू के अलावा ऎसा धैर्य वाला श्रोता शायद ही कभी मिला होगा। फिर देखा उसका छोटा सा आंचल बादाम और किशमिश से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा, “इसे यह सब क्यों दिया? ऎसा मत करना।” इतना कहकर जेब से एक अठन्नी निकालकर उसे दे दी। उसने बेझिझक अठन्नी लेकर झोली में डाल ली।
घर लौटकर देखा उस अठन्नी को लेकर बड़ा हो हल्ला शुरु हो चुका था।
मिनी की मां एक सफेद चमचमाता गोलाकार पदार्थ हांथ में लेकर मिनी से पूंछ रही थीं, “तुझे अठन्नी कहां से मिली?”
मिनी ने कहा, “काबुली वाले ने दी है।”
उसकी मां बोली, “काबुली वाले से तूने अठन्नी ली क्यों?”
मिनी रुआंसी सी होकर बोली, “मैंने मांगी नहीं, उसने खुद ही देदी।”
मैंने आकर मिनी को उस पास खड़ी विपत्ति से बचाया और बाहर ले आया।
पता चला कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही मुलाकात हो ऎसी बात नहीं है। इस बीच वह रोज़ आता रहा और पिस्ता-बादाम की रिश्वत देकर मिनी के मासूम लोभी दिल पर काफी अधिकार जमा लिया।
इन दिनों मित्रों में कुछ बंधी बंधाई बातें और परिहास होता रहा। जैसे रहमान को देखते ही मेरी लड़की हंसती हुई उससे पूंछती, “काबुलीवाला! ओ काबुलीवाला! तुम्हारी झोली में क्या है?”
रहमान एक बेमतलब नकियाते हुये कहता, “हांथी।”
यानी उसकी झोली के भीतर हांथी है, यही उसके परिहास का सूक्ष्म सा अर्थ था। अर्थ बहुत ही सूक्ष्म हो, ऎसा तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी इस परिहास में दोनों को बड़ा मजा आता। सर्दियों की भोर में एक सयाने और एक कम उम्र बच्ची की सरल हंसी मुझे भी बड़ी अच्छी लगती।
उन दोनों में एक बात और चल रही थी। रहमान मिनी से कहता, “खोखी, तुम ससुराल कभी मत जाना हां!”
बंगाली परिवार की लड़कियां बचपन से ही ससुराल शब्द से परिचित हो जाती हैं, लेकिन हम लोगों ने थोड़ा आधुनिक होने के कारण मासूम बच्ची को ससुराल के बारे में सचेत नहीं किया था। इसलिये रहमान की बातों का मतलब वह साफ साफ नहीं समझ पाती थी, लेकिन बात का कोई जवाब दिये बिना चुप रह जाना उसके स्वभाव के बिल्कुल विरुद्व था। वह पलटकर रहमान से पूंछ बैठती, “तुम ससुराल जाओगे?”
रहमान काल्पनिक ससुर के प्रति अपना बहुत बड़ा सा घूंसा तानकर कहता, “हम ससुर को मारेगा।”
यह सुनकर मिनी ससुर नाम के किसी अजनबी प्राणी की दुर्दशा की कल्पना कर खूब हंसती।
सर्दियों के उजले दिन थे। प्राचीन काल में इसी समय राजा लोग दिग्विजय करने निकलते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कहीं नहीं गया। शायद इसीलिये मेरा मन संसार-भर में घूमा करता है। जैसे मैं अपने घर के ही किसी कोने में बसा हुआ हूं। बाहर की दुनिया के लिये मेरा मन सदा बेचैन रहता है। किसी देश का नाम सुनते ही मन वहीं दौड़ पड़ता है। किसी विदेशी को देखते ही मेरा मन फौरन किसी नदी पहाड़ जंगल के बीच एक कुटिया का दृश्य देख रहा होता है। उल्लास से भरे एक स्वतन्त्र जीवन का एक चित्र कल्पना में जाग उठता है।
इधर मैं भी इतनी सुस्त प्रकृति यानी कुन्ना किस्म का हूं कि अपना कोना छोड़कर जरा बाहर निकलने पर ही सिर पर बिजली गिरने का सा अनुभव होने लगता है। इसलिये सवेरे अपने छोटे कमरे में मेज के सामने बैठकर काबुली से गप्पें लड़ाकर बहुत कुछ सैर सपाटे का उद्देष्य पूरा कर लिया करता हूं। दोनों ओर ऊबड़ खाबड़, दुर्गम जले हुये, लाल लाल ऊंचे पहाड़ों की माला, बीच में संकरे रेगिस्तानी रास्ते और उन पर सामान से लदे हुये ऊंटो का काफिला चल रहा है। पगड़ी बांधे सौदागर और मुसाफिरों में कोई ऊंट पर तो कोई पैदल चले जा रहे हैं, किसी के हांथ में बरछी है तो किसी के हांथ में पुराने जमाने की चकमक पत्थर से दागी जाने वाली बंदूक। काबुली अपने मेघ गर्जन के स्वर में , खिचड़ी भाषा में अपने वतन के बारे में सुनाता रहता और वह चित्र मेरी आखों के सामने काफिलों के समान गुजरता चला जाता।
मिनी की मां बड़े ही शंकालु स्वभाव की है। रास्ते पर कोई आहट होते ही उसे लगता कि दुनिया भर के शराबी मतवाले होकर हमारे घर की ओर ही चले आ रहे हैं। यह दुनिया हर कहीं चोर डाकू, शराबी, सांप, बाघ, मलेरिया, सुअरों, तिलचट्टों और गोरों से भरी हुई है, यही उसका ख्याल है। इतने दिनों से (हालांकि बहुत ज्यादा दिन नहीं ) दुनिया में रहने के बावजूद उसके मन से यह भय दूर नहीं हुआ। खासतौर से रहमान काबुली के बारे में वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर खास नज़र रखने के लिये वह मुझसे बार बार अनुरोध करती थी। मैं उसके सन्देह को हंसकर उड़ा देने की कोशिश करता, तो वह मुझसे एक एक करके कई सवाल पूंछ बैठती, “क्या कभी किसी का लड़का चुराया नहीं गया? क्या काबुल में गुलामी प्रथा लागू नहीं है? एक लम्बे चौडे काबुली के लिये एक छोटे से बच्चे को चुरा कर ले जाना क्या बिल्कुल असंभव है?”
मुझे मानना पड़ा कि यह बात बिल्कुल असंभव तो नहीं, पर विश्वास योग्य भी नहीं है। विश्वास करने की शक्ति हरेक में समान नहीं होती, इसलिये मेरी पत्नी के मन में डर बना रह गया। लेकिन सिर्फ इसलिये बिना किसी दोष के रहमान को अपने घर में आने से मैं मना नहीं कर सका।
हर साल माघ के महीनों में रहमान अपने मुल्क चला जाता है। इस समय वह अपने रुपयों की वसूली में बुरी तरह फंसा रहता है। घर-घर दौड़ना पड़ता है, फिर भी वह एक बार आकर मिनी से मिल ही जाता है। देखने में लगता है जैसे दोनों में कोई साजिश चल रही हो। जिस दिन सवेरे नहीं आ पाता उस दिन देखता हूं शाम को आया है। अंधेरे कमरे के कोने में उस ढीला ढाला कुर्ता पायजामा पहने झोली झिंगोली वाले लम्बे तगड़े आदमी को देखकर सचमुच मन में एक आशंका सी होने लगती है। लेकिन जब देखता हूं कि मिनी ‘काबुलीवाला काबुलीवाला’ कहकर हंसते-हंसते दौड़ आती और अलग-अलग उम्र के दो मित्रों में पुराना सहज परिहास चलने लगता है, तो मेरा हृदय खुशी से भर उठता।
एक दिन सवेरे में अपने छोटे से कमरे में बैठा अपनी किताब के प्रूफ देख रहा था। सर्दियों के दिन खत्म होने से पहले , आज दो तीन दिन से कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। चारों ओर सबके दांत किटकिटा रहे थे। खिड़कियों के रास्ते धूप आकर मेज के नीचे मेरे पैरों पर पड़ रही थी। यह सेंक मुझे बड़ी सुहावनी लग रही थी। सुबह के करीब आठ बजे होंगे। गुलूबंद लपेटे सवेरे सैर को निकलने वाले लोग अपनी सैर समाप्त कर घर लौट रहे थे। इसी समय सड़क पर बड़ा शोर गुल सुनाई पड़ा।
देखा, हमारे रहमान को दो सिपाही बांधे चले आ रहे हैं और उसके पीछे-पीछे तमाशबीन लड़कों का झुन्ड चला अ रहा है। रहमान के कपड़ों पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हांथ में खून से सना हुआ छुरा है। मैंने दरवाजे से बाहर जाकर सिपाहियों से पूंछा कि मामला क्या है।
कुछ उस सिपाही से कुछ रहमान से सुना कि हमारे पड़ोस में एक आदमी ने रहमान से उधार में एक रामपुरी चादर खरीदी थी। कुछ रुपये अब भी उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से वह मुकर गया था। इसी पर बहस होते-होते रहमान ने उसे छुरा भौंक दिया।
रहमान उस झूठे आदमी के प्रति तरह-तरह की गन्दी गालियां बक रहा था कि इतने में ‘काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला’ कहती हुई मिनी घर से निकल आई।
क्षण भर में रहमान का चेहरा उजली हंसी से खिल उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी, इसलिये झोली के बारे में दोनों मित्रों की पुरानी चर्चा न छिड़ सकी। मिनी आते ही एकाएक उससे पूंछ बैठी, “तुम ससुराल जाओगे?”
रहमान ने हंस कर कहा, “वहीं तो जा रहा हूं।”
उसे लगा उसके जवाब से मिनी मुस्कुराई नहीं। तब उसने हांथ दिखाते हुये कहा, “ससुर को मारता, पर क्या करूं हांथ बंधे हुये हैं।”
संगीन चोट पहुंचाने के जुर्म में रहमान को कई सालों की कैद की सजा हो गई। कभी उसके बारे में मैं धीरे-धीरे भूल ही गया। हम लोग जब अपने-अपने घरों में प्रतिदिन के कामों में लगे हुये आराम से दिन गुजार रहे थे, तब पहाड़ों पर आजाद घूमने वाला आदमी कैसे साल पर साल जेल की दीवारों के बीच गुजार रहा होगा, यह बात कभी हमारे मन में नहीं आई।
चंचल हृदय मिनी का व्यवहार तो और भी शर्मनाक था, यह बात उसके बाप को भी माननी पड़ेगी। उसने बड़े ही बेलौस ढंग से अपने पुराने मित्र को भुलाकर पहले तो नबी सईस से दोस्ती कर ली, फिर धीरे-धीरे जैसे उसकी उम्र बढने लगी, वैसे-वैसे दोस्तों के बदले एक के बाद एक सहेलियां जुटने लगीं। यहां तक कि वह अब अपने बाबू के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मैंने भी एक तरह से उसके साथ कुट्टी कर ली है।
कितने ही वर्ष बीत गये। फिर सर्दियां आ गईं। मेरी मिनी की शादी तय हो गई। दुर्गा पूजा की छुट्टी में ही उसका ब्याह हो जायेगा। कैलाशवासिनी पार्वती के साथ-साथ मेरे घर की आनन्द मयी भी पिता का घर अंधेरा कर पति के घर चली जायेगी।
बड़े ही सुहावने ढंग से आज सूर्योदय हुआ है। बरसात के बाद सर्दियों की नई धुली हुई धूप ने जैसे सुहागे में गलाये हुये साफ और खरे सोने का रंग अपना लिया है। कलकत्ता के गलियारों में आपस में सटी-टूटी ईंटोवाली गन्दी इमारतों पर भी इस धूप की चमक ने एक अनोखी सुन्दरता बिखेर दी है।
हमारे घर पर सवेरा होने से पहले ही शहनाई बज रही है। मुझे लग रहा है, जैसे वह शहनाई मेरे सीने में पसलियों के भीतर रोती हुई बज रही है। उसका करुण भैरवी राग जैसे मेरे सामने खड़ी विछोह की पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ दुनिया भर में फैलाये दे रहा हो। आज मेरी मिनी का ब्याह है।
सवेरे से ही बड़ा शोरशराबा और लोगों का आना-जाना शुरु हो गया। आंगन में बांस बांधकर शामियाना लगाया जा रहा है,मकान के कमरों और बरामदों पर झाड़ लटकाये जाने की टन-टन सुनाई पड़ रही है। गुहार – पुकार का कोई अंत ही नहीं।
मैं अपने पढने-लिखने वाले कमरे में बैठा खर्च का हिसाब-किताब लिख रहा था कि रहमान आकर सलाम करते हुये खड़ा हो गया।
शुरु में मैं उसे पहचान न सका। उसके पास वह झोली नहीं थी और न चेहरे पर चमक थी। अन्त में उसकी मुस्कुराहट देख कर उसे पहचान गया।
“क्यों रहमान, कब आये?” मैंने पूंछा।
उसने कहा, “कल शाम ही जेल से छूटा हूं।”
यह बात मेरे कानों में जैसे जोर से टकराई। किसी कातिल को मैंने अपनी आंखो से नहीं देखा था। इसे देखकर मेरा अंतःकरण विचलित सा हो गया। मेरी इच्छा होने लगी कि आज इस शुभ दिन पर यह अदमी यहां से चला जाय, तो अच्छा हो।
मैंने उससे कहा, “आज हमारे घर एक जरूरी काम है। मैं उसी में लगा हुआ हूं, आज तुम जाओ।”
सुनते ही वह जाने को तैयार हुआ, लेकिन फिर दरवाजे के पास जा खड़ा हुआ और कुछ संकोच से भर कर बोला, “एक बार खोकी को नहीं देख सकता क्या?”
शायद उसके मन में यही धारणा थी कि मिनी अभी तक वैसी ही बनी हुई है। या उसने सोंचा था कि मिनी आज भी वैसे ही पहले की तरह ‘काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला’ पुकारती हुई भागती हुई आ जायेगी और उसकी हंसी भरी अद्भुत बातों में किसी तरह का कोई फर्क नहीं आयेगा। यहां तक की पहले की मित्रता की याद कर वह एक पिटारी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ा किशमिश-बादाम शायद किसी अपने वतनी दोस्त से मांग-मूंग कर ले आया था। उसकी पहले वाली झोली उसके पास नहीं थी।
मैंने कहा, “आज घर पर काम है। आज किसी से मुलाकात न हो सकेगी।”
वह कुछ उदास सा हो गया। स्तब्ध खड़ा मेरी ओर एकटक देखता रहा, फिर सलाम बाबू कहकर दरवाजे से बाहर निकल गया।
मेरे हृदय में एक टीस सी उठी। सोंच रहा था कि उसे बुला लूं कि देखा वह खुद ही चला आ रहा है।
नजदीक आकर उसने कहा, ” ये अंगूर किशमिश और बादाम खोखी के लिये लाया हूं, उसको दे दीजियेगा।”
सब लेकर मैंने दाम देना चाहा, तो उसने एकाएक मेरा हांथ पकड़ लिया, कहा, “आपकी मेहरबानी है बाबू, हमेशा याद रहेगी। मुझे पैसा न दें…। बाबू, जैसी तुम्हारी लड़की है, वैसी मेरी भी एक लड़की है वतन में। मैं उसकी याद कर तुम्हारी खोखी के लिये थोड़ा सा मेवा हांथ में लेकर चला आता था। मैं यहां कोई सौदा बेचने नहीं आता।”
इतना कहकर उसने अपने ढीले ढाले कुर्ते के अन्दर हांथ डालकर एक मैला सा कागज निकाला और बड़े जतन से उसकी तहें खोलकर दोनों हांथ से उसे मेज पर फैला दिया।
मैंने देखा, कागज पर एक नन्हें से हांथ के पंजे की छाप है। फोटो नहीं , तैल चित्र नहीं, सिर्फ हथेली में थोड़ी सी कालिख लगाकर उसी का निशान ले लिया गया है। बेटी की इस नन्ही सी याद को छाती से लगाये रहमान हर साल कलकत्ता की गलियों में मेवा बेचने आता था, जैसे उस नाजुक नन्हें हांथ का स्पर्श उसके विछोह से भरे चौड़े सीने में अमृत घोले रहता था।
देखकर मेरी आंखे भर आईं। फिर मैं यह भूल गया कि वह एक काबुली मेवे वाला है और मैं किसी ऊंचे घराने का बंगाली। तब मैं यह अनुभव करने लगा कि जो वह है, वही मैं भी हूं। वह भी बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी नन्ही पार्वती के हांथों की निशानी ने ही मेरी मिनी की याद दिला दी। मैंने उसी वक्त मिनी को बाहर बुलवाया। घर में इस पर बड़ी आपत्ति की गई, पर मैंने एक न सुनी। ब्याह की लाल बनारसी साड़ी पहने, माथे पर चन्दन की अल्पना सजाये दुल्हन बनी मिनी लाज से भरी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उसे देखकर काबुली पहले तो सकपका सा गया, अपनी पुरानी बातें दोहरा न सका। अंत में हंसकर बोला, “खोखी तुम ससुराल जाओगी?”
मिनी अब ससुराल शब्द का मतलब समझती है। उससे पहले की तरह जवाब देते न बना। रहमान का सवाल सुन शर्म से लाल हो, मुंह फेरकर खड़ी हो गई। काबुली से मिनी की पहले दिन की मुलाकात मुझे याद हो आई। मन न जाने कैसा व्यथिथ हो उठा।
मिनी के चले जाने के बाद एक लंबी सांस लेकर रहमान वहीं जमीन पर बैठ गया। अचानक उसके मन में एक बात साफ हो गई कि उसकी लड़की भी इस बीच इतनी ही बड़ी हो गई होगी और उसके साथ भी उसे नये ढंग से बात चीत करनी पड़ेगी। वह उसे फिर से पहले वाले रूप में नहीं पायेगा। इस आठ वर्षों में न जाने उसका क्या हुआ होगा। सवेरे के वक्त सर्दियों की उजली कोमल धूप में शहनाई बजने लगी और कलकत्ता की एक गली में बैठा हुआ रहमान अफगानिस्तान के मेरु पर्वतों का दृष्य देखने लगा।
मैंने उसे एक बड़ा नोट निकालकर दिया, कहा, “तुम अपने वतन अपनी बेटी के पास चले जाओ। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी का कल्याण होगा।”
यह रुपया दान करने के बाद मुझे विवाहोत्सव की दो-चार चीज़ें कम कर देनी पड़ीं। मन में जैसी इच्छा थी उस तरह रोशनी नहीं कर सका। किले का अंग्रेजी बैंड भी नहीं मंगा पाया। घर में औरतें बड़ा असन्तोष प्रकट करने लगीं, लेकिन मंगल ज्योति में मेरा यह शुभ-आयोजन दमक उठा।
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