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Home विशेष साहित्य
अनमोल भेंट

अनमोल भेंट

by Admin
May 7, 2015
in साहित्य, हिंदी लघुकथाएं
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रवीन्द्रनाथ टैगोर
रायचरण बारह वर्ष की आयु से अपने मालिक का बच्‍चा खिलाने पर नौकर हुआ था। उसके पश्चात् काफ़ी समय बीत गया। नन्हा बच्‍चा रायचरण की गोद से निकलकर स्कूल में प्रविष्ट हुआ, स्कूल से कॉलिज में पहुँचा, फिर एक सरकारी स्थान पर लग गया। किन्तु रायचरण अब भी बच्‍चा खिलाता था, यह बच्‍चा उसकी गोद के पाले हुए अनुकूल बाबू का पुत्र था।
बच्‍चा घुटनों के बल चलकर बाहर निकल जाता। जब रायचरण दौड़कर उसको पकड़ता तो वह रोता और अपने नन्हे-नन्हे हाथों से रायचरण को मारता।

रायचरण हंसकर कहता- हमारा भैया भी बड़ा होकर जज साहब बनेगा- जब वह रायचरण को चन्ना कहकर पुकारता तो उसका हृदय बहुत हर्षित होता। वह दोनों हाथ पृथ्वी पर टेककर घोड़ा बनता और बच्‍चा उसकी पीठ पर सवार हो जाता।
इन्हीं दिनों अनुकूल बाबू की बदली परयां नदी के किनारे एक ज़िले में हो गई। नए स्थान की ओर जाते हुए कलकत्ते से उन्होंने अपने बच्चे के लिए मूल्यवान आभूषण और कपड़ों के अतिरिक्त एक छोटी-सी सुन्दर गाड़ी भी ख़रीदी।
वर्षा ऋतु थी। कई दिनों से मूसलाधर वर्षा हो रही थी। ईश्वर-ईश्वर करते हुए बादल फटे। संध्या का समय था। बच्चे ने बाहर जाने के लिए आग्रह किया। रायचरण उसे गाड़ी में बिठाकर बाहर ले गया। खेतों में पानी खूब भरा हुआ था। बच्चे ने फूलों का गुच्छा देखकर ज़िद की, रायचरण ने उसे बहलाना चाहा किन्तु वह न माना। विवश रायचरण बच्चे का मन रखने के लिए घुटनों-घुटनों पानी में फूल तोड़ने लगा। कई स्थानों पर उसके पांव कीचड़ में बुरी तरह धंस गये। बच्‍चा तनिक देर मौन गाड़ी में बैठा रहा, फिर उसका ध्यान लहराती हुई नदी की ओर गया। वह चुपके से गाड़ी से उतरा। पास ही एक लकड़ी पड़ी थी, उठा ली और भयानक नदी के तट पर पहुंचकर उसकी लहरों से खेलने लगा। नदी के शोर में ऐसा मालूम होता था कि नदी की चंचल और मुंहजोर जल-परियां सुन्दर बच्चे को अपने साथ खेलने के लिए बुला रही हैं।

रायचरण फूल लेकर वापस आया तो देखा गाड़ी ख़ाली है। उसने इधर-उधर देखा, पैरों के नीचे से धरती निकल गई। पागलों की भांति चहुंओर देखने लगा। वह बार-बार बच्चे का नाम लेकर पुकारता था लेकिन उत्तर में ‘चन्ना’ की मधुर ध्वनि न आती थी।
चारों ओर अंधेरा छा गया। बच्चे की माता को चिन्ता होने लगी। उसने चारों ओर आदमी दौड़ाये। कुछ व्यक्ति लालटेन लिये हुए नदी के किनारे खोज करने पहुँचे। रायचरण उन्हें देखकर उनके चरणों में गिर पड़ा। उन्होंने उससे प्रश्न करने आरम्भ किये किन्तु वह प्रत्येक प्रश्न के उत्तर में यही कहता-मुझे कुछ मालूम नहीं।

यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति की यह सम्मति थी कि छोटे बच्चे को परयां नदी ने अपने आंचल में छिपा लिया है किन्तु फिर भी हृदय में विभिन्न प्रकार की शंकायें उत्पन्न हो रही थीं। एक यह कि उसी संध्या को निर्वासितों का एक समूह नगर से गया था और मां को संदेह था कि रायचरण ने कहीं बच्चे को निर्वासित के हाथों न बेच दिया हो। वह रायचरण को अलग ले गई और उससे विनती करते हुए कहने लगी-रायचरण, तुम मुझसे जितना रुपया चाहो ले लो, किन्तु परमात्मा के लिए मेरी दशा पर तरस खाकर मेरा बच्‍चा मुझको वापस कर दो।
परन्तु रायचरण कुछ उत्तर न दे सका, केवल माथे पर हाथ मारकर मौन हो गया।
स्वामिनी ने क्रोध और आवेश की दशा में उसको घर-से बाहर निकाल दिया। अनुकूल बाबू ने पत्नी को बहुत समझाया किन्तु माता के हृदय से शंकाएं दूर न हुईं। वह बराबर यही कहती रही कि- मेरा बच्‍चा सोने के आभूषण पहने हुए था, अवश्य इसने…
रायचरण अपने गांव वापस चला आया। उसे कोई सन्तान न थी और न ही सन्तान होने की कोई सम्भावना थी। किन्तु साल की समाप्ति पर उसके घर पुत्र ने जन्म लिया; परन्तु पत्नी सूतिका-गृह में ही मर गई। घर में एक विधवा बहन थी। उसने बच्चे के पालन-पोषण का भार अपने ऊपर लिया।
जब बच्‍चा घुटनों के बल चलने लगा, वह घर वालों की नजर बचा कर बाहर निकल जाता। रायचरण जब उसे दौड़कर पकड़ता तो वह चंचलता से उसको मारता। उस समय रायचरण के नेत्रों के सामने अपने उस नन्हें मालिक की सूरत फिर जाती जो परयां नदी की लहरों में लुप्त हो गया था।
बच्चे की जबान खुली तो वह बाप को ‘बाबा’ और बुआ को ‘मामा’ इस ढंग से कहता था जिस ढंग से रायचरण का नन्हा मालिक बोलता था। रायचरण उसकी आवाज़ से चौंक उठता। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसके मालिक ने उसके घर में जन्म लिया है।
इस विचार को निर्धारित करने के लिए उसके पास तीन प्रमाण थे। एक तो यह कि वह नन्हे मालिक की मृत्यु के थोड़े ही समय पश्चात् उत्पन्न हुआ। दूसरे यह कि उसकी पत्नी वृध्द हो गई थी और सन्तान-उत्पत्ति की कोई आशा न थी। तीसरे यह कि बच्चे के बोलने का ढंग और उसकी सम्पूर्ण भाव-भंगिमाएं नन्हे मालिक से मिलती-जुलती थीं।

वह हर समय बच्चे की देख-भाल में संलग्न रहता। उसे भय था कि उसका नन्हा मालिक फिर कहीं गायब न हो जाए। वह बच्चे के लिए एक गाड़ी लाया और अपनी पत्नी के आभूषण बेचकर बच्चे के लिए आभूषण बनवा दिये। वह उसे गाड़ी में बिठाकर प्रतिदिन वायु-सेवन के लिए बाहर ले जाता था।
धीरे-धीरे दिन बीतते गये और बच्‍चा सयाना हो गया। परन्तु इस लाड़-चाव में वह बहुत बिगड़ गया था। किसी से सीधे मुंह बात न करता। गांव के लड़के उसे लाट साहब कहकर छेड़ते।
जब लड़का शिक्षा-योग्य हुआ तो रायचरण अपनी छोटी-सी ज़मीन बेचकर कलकत्ता आ गया। उसने दौड़-धूप करके नौकरी खोजी और फलन को स्कूल में दाखिल करवा दिया। उसको पूर्ण विश्वास था कि बड़ा होकर फलन अवश्य जज बनेगा।
होते-होते अब फलन की आयु बारह वर्ष हो गई। अब वह खूब लिख-पढ़ सकता था। उसका स्वास्थ्य अच्छा और सूरत-शक्ल भी अच्छी थी। उसको बनाव- शृंगार की भी बड़ी चिन्ता रहती थी। जब देखो दर्पण हाथ में लिये बाल बना रहा है।
वह अपव्ययी भी बहुत था। पिता की सारी आय व्यर्थ की विलास-सामग्री में व्यय कर देता। रायचरण उससे प्रेम तो पिता की भांति करता था, किन्तु प्राय: उसका बर्ताव उस लड़के से ऐसा ही था जैसे मालिक के साथ नौकर का होता है। उसका फलन भी उसे पिता न समझता था। दूसरी बात यह थी कि रायचरण स्वयं को फलन का पिता प्रकट भी न करता था।
छात्रावास के विद्यार्थी रायचरण के गंवारपन का उपहास करते और फलन भी उन्हीं के साथ सम्मिलित हो जाता।
रायचरण ने ज़मीन बेचकर जो कुछ रुपया प्राप्त किया था वह अब लगभग सारा समाप्त हो चुका था। उसका साधारण वेतन फलन के खर्चों के लिए कम था। वह प्राय: अपने पिता से जेब-खर्च और विलास की सामग्री तथा अच्छे-अच्छे वस्त्रों के लिए झगड़ता रहता था।
आखिर एक युक्ति रायचरण के मस्तिष्क में आई उसने नौकरी छोड़ दी और उसके पास जो कुछ शेष रुपया था फलन को सौंपकर बोला- फलन, मैं एक आवश्यक कार्य से गांव जा रहा हूं, बहुत जल्द वापस आ जाऊंगा। तुम किसी बात से घबराना नहीं।
2
रायचरण सीधा उस स्थान पर पहुंचा जहां अनुकूल बाबू जज के ओहदे पर लगे हुए थे। उनके और कोई दूसरी संतान न थी इस कारण उनकी पत्नी हर समय चिन्तित रहती थी।
अनुकूल बाबू कचहरी से वापस आकर कुर्सी पर बैठे हुए थे और उनकी पत्नी सन्तानोत्पत्ति के लिए बाज़ारू दवा बेचने वाले से जड़ी-बूटियां ख़रीद रही थी।

काफ़ी दिनों के पश्चात् वह अपने वृध्द नौकर रायचरण को देखकर आश्चर्यचकित हुई, पुरानी सेवाओं का विचार करके उसको रायचरण पर तरस आ गया और उससे पूछा- क्या तुम फिर नौकरी करना चाहते हो?
रायचरण ने मुस्कराकर उत्तर दिया- मैं अपनी मालकिन के चरण छूना चाहता हूं।
अनुकूल बाबू रायचरण की आवाज़ सुनकर कमरे से निकल आये। रायचरण की शक्ल देखकर उनके कलेजे का जख्म ताजा हो गया और उन्होंने मुख फेर लिया।
रायचरण ने अनुकूल बाबू को सम्बोधित करके कहा- सरकार, आपके बच्चे को परयां ने नहीं, बल्कि मैंने चुराया था।
अनुकूल बाबू ने आश्चर्य से कहा- तुम यह क्या कह रहे हो, क्या मेरा बच्‍चा वास्तव में ज़िन्दा है?
उसकी पत्नी ने उछलकर कहा- भगवान के लिए बताओ मेरा बच्‍चा कहां है?
रायचरण ने कहा- आप सन्तोष रखें, आपका बच्‍चा इस समय भी मेरे पास है।
अनुकूल बाबू की पत्नी ने रायचरण से अत्यधिक विनती करते हुए कहा- मुझे बताओ।
रायचरण ने कहा- मैं उसे परसों ले आऊंगा।
3
रविवार का दिन था। जज साहब अपने मकान में बेचैनी से रायचरण की प्रतीक्षा कर रहे थे। कभी वह कमरे में इधर-उधर टहलने लगते और कभी थोड़े समय के लिए आराम-कुर्सी पर बैठ जाते। आखिर दस बजे के लगभग रायचरण ने फलन का हाथ पकड़े हुए कमरे में प्रवेश किया।
अनुकूल बाबू की घरवाली फलन को देखते ही दीवानों की भांति उसकी ओर लपकी और उसे बड़े ज़ोर से गले लगा लिया। उनके नेत्रों से अश्रुओं का समुद्र उमड़ पड़ा। कभी वह उसको प्यार करती, कभी आश्चर्य से उसकी सूरत तकने लग जाती। फलन सुन्दर था और उसके कपड़े भी अच्छे थे। अनुकूल बाबू के हृदय में भी पुत्र-प्रेम का आवेश उत्पन्न हुआ, किन्तु जरा-सी देर के बार उनके पितृ-प्रेम का स्थान क़ानून भावना ने ले लिया और उन्होंने रायचरण से पूछा-भला इसका प्रमाण क्या है कि यह बच्‍चा मेरा है?
रायचरण ने उत्तर दिया- इसका उत्तर मैं क्या दूं सरकार! इस बात का ज्ञान तो परमात्मा के सिवाय और किसी को नहीं हो सकता कि मैंने ही आपका बच्‍चा चुराया था।

जब अनुकूल बाबू ने देखा कि उनकी पत्नी फलन को कलेजे से लगाये हुए है तो प्रमाण मांगना व्यर्थ है। इसके अतिरिक्त उन्हें ध्यान आया कि इस गंवार को ऐसा सुन्दर बच्‍चा कहां मिल सकता था और झूठ बोलने से क्या लाभ हो सकता है।
सहसा उन्हें अपने वृध्द नौकर की बेध्यानी याद आ गई और क़ानूनी मुद्रा में बोले-रायचरण, अब तुम यहां नहीं रह सकते।
रायचरण ने ठंडी उसांस भरकर कहा-सरकार, अब मैं कहां जाऊं। बूढ़ा हो गया हूं, अब मुझे कोई नौकर भी न रखेगा। भगवान के लिए अपने द्वार पर पड़ा रहने दीजिये।

अनुकूल बाबू की पत्नी बोली- रहने दो, हमारा क्या नुकसान है? हमारा बच्‍चा भी इसे देखकर प्रसन्न रहेगा।
किन्तु अनुकूल बाबू की क़ानूनी नस भड़की हुई थी। उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया-नहीं, इसका अपराध बिल्कुल क्षमा नहीं किया जा सकता।
रायचरण ने अनुकूल बाबू के पांव पकड़ते हुए कहा- सरकार, मुझे न निकालिए, मैंने आपका बच्‍चा नहीं चुराया था बल्कि परमात्मा ने चुराया था।
अनुकूल बाबू को गंवार की इस बात पर और भी अधिक क्रोध आ गया। बोले-नहीं, अब मैं तुम पर विश्वास नहीं कर सकता। तुमने मेरे साथ कृतघ्नता की है।

रायचरण ने फिर कहा- सरकार, मेरा कुछ अपराध नहीं।
अनुकूल बाबू त्यौरियों पर बल डालकर कहने लगे- तो फिर किसका अपराध है?
रायचरण ने उत्तर दिया- मेरे भाग्य का।
परन्तु शिक्षित व्यक्ति भाग्य का अस्तित्व स्वीकार नहीं कर सकता।
फलन को जब मालूम हुआ कि वह वास्तव में एक धनी व्यक्ति का पुत्र है तो उसे भी रायचरण की इस चेष्टा पर क्रोध आया, कि उसने इतने दिनों तक क्यों उसे कष्ट में रखा। फिर रायचरण को देखकर उसे दया भी आ गई और उसने अनुकूल बाबू से कहा- पिताजी, इसको क्षमा कर दीजिए। यदि आप इसको अपने साथ नहीं रखना चाहते तो इसकी थोड़ी पेंशन कर दें।
इतना सुनने के बाद रायचरण अपने बेटे को अन्तिम बार देखकर अनुकूल बाबू की कोठी से निकलकर चुपचाप कहीं चला गया।
महीना समाप्त होने पर अनुकूल बाबू ने रायचरण के गांव कुछ रुपया भेजा किन्तु मनीआर्डर वापस आ गया क्योंकि गांव में अब इस नाम का कोई व्यक्ति न था।
Tags: रवीन्द्रनाथ टैगोर
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