डाॅ.मुरलीधर चाँदनीवाला |
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| बरसों से भटक रहा हूँ इधर-उधर जीवन बहती नदी की तरह निकल गया बहुत आगे, अब बैठता हूँ अकेले में तब याद तेरी आती है। कुछ भी कर,खींच ले पास, तेरे बगीचों की छीलूंगा घाँस। हे उज्जयिनी! तू बुला ले अपने पास।। — तूने पाला-पोसा,बड़ा किया। वो मंगलनाथ तक पैदल चलकर जाना, अंकपात के मिथ में से निकलकर गढकालिका होकर लौटना, भर्तृहरि की गुफा के वे रहस्य अब भी नहीं खुले हैं भीतर, नहीं समझ सका काल का मदिरापान अभी तक। हरसिद्धि के सामने वाले चबूतरे पर बैठकर मैंने रटे हैं पाणिनि के सूत्र, रुद्रसागर के बीच वाले टीले को खोद-खोद कर देखता रहा मेरा बचपन, कि कहीं मिले विक्रम का सिंहासन। ऐसा नहीं कि तुझे मालूम न हो, कुछ भी कर,खींच ले पास, मैं रहूंगा बनकर तेरा दास। हे उज्जयिनी! तू बुला ले अपने पास। — दौड़-दौड़कर जाता था महाकाल के गर्भगृह में हरसिंगार का हार लिये सावन में, कोई रोकने वाला न था। ऊपर ओंकारेश्वर की पेड़ी में लगी जाली में से ज्योतिर्लिंग को देखना झाँक-झाँककर अब भी नहीं भूलता, वहीं सामने लगती थी हमारी संस्कृत पाठशाला, गुण्डम् भट्ट,बंसीधर वासिष्ठ नीचे बैठकर पढाते थे कौमुदी,शिवराजविजय। पाठशाला से लौटते तो भारतीभवन के झरोखे से देख लेती थी चाल-चलन पण्डित जी की पैनी नजर। कुछ भी कर,खींच ले पास, उत्तरचरण में बस तेरी ही आस। हे उज्जयिनी! तू बुला ले अपने पास। — शाम-सबेरे छत्रीचौक तक जाना, गोपालमंदिर में द्वारिकाधीश के मस्तक पर मढा हीरा देख चमत्कृत होना, और फिर श्रीकृष्ण भक्ति भंडार के मुँहाने पर टटोलना अपने मन की शान्ति के सूत्र, उधर गैबी हनुमान होते हुए शिप्रा के किनारे-किनारे घूमते दत्तात्रय अखाड़े तक हो आना दोस्तों के संग, नहीं भूलती वो ठंडी शाम, कुछ भी कर,खींच ले अपने पास, हे उज्जयिनी! तू बुला ले अपने पास। — याद आते हैं आलोक मेहता,सुभाष,अरुण, जिनके साथ खेला तेरे आँचल में मेरा किशोर मन। वे गोष्ठियाँ ‘परिवेश’की,’विशाला’ की, विक्रम कीर्तिमंदिर में सुनने चले जाना बड़े ज्ञानी-पण्डितों को, और लौटना ‘सुमन’जी के किस्से सुनते-सुनाते, यादों में बसा हुआ है नूतन स्कूल, पुरुषोत्तम दीक्षित,ज्वेल साहब की असरदार आवाज आज भी गूँजती है कानों में। कुछ भी कर,खींच ले पास, ला दे मेरे भीतर नया उजास। हे उज्जयिनी! तू बुला ले अपने पास। |
मुझे याद आती है अच्युतानंद प्रासादिक व्यायामशाला, युवराज लाइब्रेरी, बच्छराज धर्मशाला में बैठने वाले वैद्य बसंतीलाल जी की पुड़िया, नगरपालिका के अहाते में वैद्य गोपीकृष्ण जी के हाथों मुफ्त का मनमोहन चूर्ण का स्वाद अब भी भूला नहीं। कार्तिकमेले के वे मालवी कविसम्मेलन जिनमें शिरकत करते हुए देखना भावसार बा,गिरिवरसिंह भँवर, सुल्तान मामा को, देर रात से अलसुबह तक माच देखना, महाकाल की सवारी,गैर, सिंहस्थ की शाही सवारियाँ सन् छप्पन से लेकर अब तक तैरती रहती है आँखों में। कुछ भी कर,खींच ले पास, निकाल दे मेरे मन की फाँस। हे उज्जयिनी! बुला ले अपने पास। — नहीं भूलता हूँ भगवतशरण जी को,सुमन जी को, रथ साहब को। कभी सरल जी उतर आते हैं भीतर तक भगतसिंह महाकाव्य लेकर, कभी वाकणकर जी पत्थर की मूर्तियों के मानस में उतरते हुए। कभी अशोक वक्त भी आ खड़े होते हैं ‘वर्धा आँसू से भीगा है’गाते हुए। और वे अनगिनत वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ ज्यों की त्यों उतर आती हैं चित्र की तरह, जिन्होंने हमें हार-जीत के बीच खड़े रहकर बोलना सिखाया। कुछ भी कर, खींच ले अपने पास, भरोसा रख,नहीं करूंगा निराश। हे उज्जयिनी! तू बुला ले अपने पास। — पटनीबाजार में सोने-चाँदी की चमक, ताम्बा-पीतल की खन-खन, लखेरवाड़ी में सुहाग की चूड़ियाँ, मगरमुहा में शोभाराम सुगंधी, उधर कंठाल से लेकर छत्रीचौक तक कपड़े,मिठाइयों और इत्र-फुलेल की दुकानों के बीच सतीगेट आज भी ध्यान खींच लेता है ऊपर बने स्मारक पर। नहीं भूलता कभी माधव काॅलेज के मस्ती भरे दिन, वो गाँधी-गालिब की शताब्दी की यादें, बच्चन-दिनकर को सुनना, कुछ बड़े हुए तो देखा यहीं पर महादेवी,अज्ञेय,अमृतलाल नागर को, कुमार गन्धर्व को सुना अपलक निहारते हुए। मैं रह-रहकर याद करता हूँ अपने गुरुजनों को, माता-पिता,भाई-बहन को, दोस्तों को, जिनके साथ खेलते-कूदते बड़ा हुआ। कुछ भी कर,खींच ले पास, तेरे ही आँचल में हों श्वासोच्छ्वास। हे उज्जयिनी! तू बुला ले अपने पास। |
