हमारी उज्जयिनी प्राचीन काल से ही शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रही है । मुझे ऐसा लगता है कि ’गुरुभूमि’ के रूप में संसार में इसकी प्रतिष्ठा के दो महत्त्वपूर्ण कारण है । पहला कारण तो यह है कि यहां त्रिभुवनगुरु भगवान् महाकाल का नित्य निवास है । योगशास्त्र भी ’पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्’ (योगसूत्र, १/२६) कहकर परमेश्वर महाकाल को पूर्ववर्ति-गुरुओं का भी गुरु बताता है । महाकवि कालिदास ने भी मेघदूत में ’पुण्यं यायास्त्रिभुवनगुरोः धाम चण्डीश्वरस्य’ इस पद्य में उज्जयिनी को त्रिभुवनगुरु महाकाल का पावन धाम कहा है ।
दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि यह नगरी जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण की विद्यास्थली भी रही है । महाभारत के सभापर्व में उल्लेख है कि श्रीकृष्ण और बलराम ने उज्जयिनी में महर्षि सान्दीपनि से वेद-वेदांग-लेख्य-गणित-गान्धर्व वेद- वैद्यकीय शास्त्र-गजशिक्षा-अश्वशिक्षा आदि अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया था ।
यायावर राजशेखर ने हमारी इस नगरी को कविता की कसौटी माना है । उनकी दृष्टि में उज्जयिनी काव्यकारपरीक्षा-भूमि है । क्योंकि इस भूमि पर कालिदास, मेण्ठ, अमर आदि अनेक कवियों की परीक्षा ली गयी थी –
श्रूयते चोज्जयिन्यां काव्यकारपरीक्षा तथा हि इह कालिदासमेण्ठावत्रामररूपसूरभारवयः।
हरिश्चन्द्रचन्द्रगुप्तौ परीक्षिताविह विशालायाम्॥(काव्यमीमांसा अ.१०)
राजशेखर ने न केवल उज्जयिनी को काव्यकारपरीक्षा भूमि कहा है अपितु उसने यह भी बताया है कि उज्जयिनी के साहसांक नामक राजा के अन्तःपुर की भाषा भी संस्कृत ही थी – “श्रूयते चोज्जयिन्यां साहसांको नाम राजा, तेन च संस्कृतभाषात्मकमन्तःपुर एवेति समानं पूर्वेण” । प्रसिद्ध गद्यकार बाणभट्ट की दृष्टि में उज्जयिनी समस्त त्रिभुवन की माथे की बिंदिया है । कादम्बरी के उज्जयिनी वर्णन में उन्होंने यहां की विद्या-परम्परा का एक पद में ही अद्भुत वर्णन कर दिया । उनके अनुसार यह नगरी “सततप्रवृत्ताध्ययनध्वनिधौतकल्मषा” है । अर्थात् निरन्तर चल रहे अध्ययन की मंगल ध्वनि से जिसके कल्मष धुल गये हैं, ऐसी थी हमारी उज्जयिनी । और आज……..?
प्राचीन भारतीय साहित्य में उज्जयिनी के अनेक अभिधान बताये गयें है । जैसे- अवन्तिका, पद्मावती, कुशस्थली, कुमुद्वती, प्रतिकल्पा, स्वर्णशृंगा, श्रीविशाला इत्यादि। संस्कृत साहित्य में महाकवि कालिदास के मेघदूत, रघुवंश और अभिज्ञानशाकुन्तल के अतिरिक्त बाणभट्ट की कादम्बरी, श्रीहर्ष के नैषधीयचरित, भास के स्वप्नवासवदत्तम्, शूद्रक का मृच्छकटिक, कल्हण की राजतरंगिणी आदि अनेक ग्रन्थों में उज्जयिनी के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक वैभव का अनुपम वर्णन हुआ है । सात खण्डों में विभक्त स्कन्द महापुराण के पञ्चम खण्ड का नाम ही अवन्ती खण्ड है। इस पुराण में तीन सौ से अधिक अध्यायों में उज्जयिनी के अनेक पक्षों का विशद वर्णन किया गया है ।”रेवायां पञ्चमो भागः सोज्जयिन्याः प्रकीर्तितः”। वास्तव में स्कन्द पुराण का यह अवन्ती खण्ड हमारे प्राचीन अवन्ती जनपद के धर्म, कला, दर्शन और संस्कृति का अनुपम कोश है ।
श्रीविशाला- अमरकोषकार ने “विशालोज्जयिनी समे” कहकर विशाला को उज्जयिनी का पर्याय बताया है । महाकवि कालिदास इसमें श्री का संयोजन कर देते हैं-
“पूर्वोद्दिष्टामुपसर पुरीं श्रीविशालां विशालाम्” (मेघदूत-३१) ।
यहाँ मेघदूत के विद्युल्लताटीकाकार लिखते हैं-
श्रीविशाला विशालेत्युज्जयिन्या संज्ञान्तरम्..तस्याः भुक्तिमुक्तिक्षेत्रत्वात् पूजायां श्रीशब्दप्रयोगः ।
हमारी उज्जयिनी केवल भुक्तिक्षेत्र ही नहीं अपितु मुक्तिक्षेत्र भी है।
इस भाग में हम उज्जयिनी और वाराणसी की तुलनात्मक चर्चा पौराणिक सन्दर्भों के आलोक में भी देखेंगे । उज्जयिनी और वाराणसी दोनों ही विश्वप्रसिद्ध तीर्थस्थान हैं अतः इस विषय पर तुलनात्मक चर्चा सावकाश है । कालिदासीय मान्यता है कि जहां महापुरुषों ने अधिवास किया हो वही तीर्थ वास्तव में तीर्थ है –
यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थं प्रचक्षते । (कुमारसम्भवे)
इस दृष्टि से काशी और उज्जयिनी दोनों ही महत्त्वपूर्ण तीर्थ हैं । क्योंकि दोनों ही नगरी अनेकानेक महापुरुषों से अधिसेवित रही हैं । दोनों ही शिवनगरी हैं । एक के अधिष्ठाता महाकाल हैं तो दूसरी के विश्वनाथ, एक आज्ञाचक्र मानी गयी है तो दूसरी मणिपूरचक्र, एक गंगातरंगरमणीय है तो दूसरी सिप्रा-पुण्यप्रवाह से पुलकित, एक शास्त्रकारपरीक्षाभूमि है तो दूसरी काव्यकारपरीक्षाभूमि….हजारों समानताएं हैं दोनों में । वास्तव में तो ये दोनों ही नगरी अपनी अपनी कला, संस्कृति और इतिहास की समृद्ध परम्परा से विभूषित हैं । फिर भी स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड में उज्जयिनी को वाराणसी की अपेक्षा दस गुना पावन बताया गया है-
कुरुक्षेत्राद् दशगुणा पुण्या वाराणसी मता ।
तस्माद्दशगुणं व्यास ! महाकालवनोत्तमम् ॥
— (स्कन्दपुराणे,अ.ख.१/२९-३०)
पुराणकार का ऐसा मानना है कि हजारों साल काशी में रहने से जो फल प्राप्त होता है वह उज्जयिनी में वैशाख मास में पांच दिन रहने से ही प्राप्त हो जाता है –
मन्वन्तरसहस्रेषु काशीवासे च यत्फलम् ।
तत्फलं जायतेऽवन्त्यां वैशाखे पञ्चभिर्दिनैः ॥
डॉ. पवनव्यासः
सहायकाचार्यः(सं.)
सर्वदर्शनविभागः,
राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानम्
जयपुरपरिसरः,जयपुरम्