• Home
    • Home – Layout 1
    • Home – Layout 2
    • Home – Layout 3
    • Home – Layout 4
    • Home – Layout 5
Saturday, December 6, 2025
31 °c
Ujjain
27 ° Sat
27 ° Sun
27 ° Mon
26 ° Tue
  • Setup menu at Appearance » Menus and assign menu to Main Navigation
  • Setup menu at Appearance » Menus and assign menu to Main Navigation
No Result
View All Result
  • Setup menu at Appearance » Menus and assign menu to Main Navigation
No Result
View All Result
Ujjain
No Result
View All Result
Home विशेष साहित्य

पिटी हुई गोट

by Admin
April 26, 2015
in साहित्य, हिंदी लघुकथाएं
0
0
SHARES
103
VIEWS
Share on FacebookShare on Twitter
शिवानी
दिवाली का दिन। चीना पीक की जानलेवा चढ़ाई को पार कर जुआरियों का दल दुर्गम-बीहड़ पर्वत के वक्ष पर दरी बिछाकर बिखर गया था। एक ओर एक बड़े-से हंडे से बेनीनाग की हरी पहाड़ी चाय के भभके उठ रहे थे, दूसरी ओर पेड़ के तने से सात बकरे लटकाकर आग की धूनी में भूने जा रहे थे। जलते पशम से निकलती भयानक दुर्गंध, सिगरेट व सिगार के धुएँ से मिलकर अजब खुमारी उठ रही थी।
नैनीताल से चार मील दूर, एक बीहड़ पहाड़ी पर जमा यह अड्डा आवारा रसिकजनों का नहीं था। सात-आठ हज़ार से कम हस्ती का आदमी वहाँ प्रवेश भी नहीं पा सकता था। टेढ़ी खद्दर की टोपी को बाँकी अदा से लगाए तरुण नेता महिम भट्ट, भालदार कुंदन सिंह, कुँवर लालबहादुर, सुंदर जोशी आदि एक से एक गणमान्य व्यक्ति, महालक्ष्मी का पूजन-प्रसादी ग्रहण कर अपने गुप्त अड्डे पर पहुँच जाते। छाती से ताश की गड्डी चिपकाकर। टेड़ी आँखों से दूसरे खिलाड़ी के पत्तों की ग्रह स्थिति भाँपना, झूठी गीदड़ भभकियाँ देकर चालें चलना, उन सिद्धहस्त पारंगत खिलाड़ियों के बाएँ हाथ का खेल था। उस दायरे में प्राय: आठ-दस ही खिलाड़ी रहते, क्यों कि चीना पीक के उस बादशाही खेल की चालें चलना हर किसी के लिए संभव नहीं होता।
मिनटों में ही वहाँ एक हज़ार की चाल तिगुनी कर पत्ते खुलवाए जाते, कभी कत्थे और चीड़ के ठेके दाँव पर लगाए जाते और कभी अवारापाटा और अपर चीना-स्थित भव्य साहबी बँगले।
नैनीताल के कई लखपति चीना पीक की उसी वीरानी से वीरान बनकर लौटे थे, फिर भी प्रत्येक महालया को उसी धूम और उसी गरज-तरज से फिर अड्डा जम जाता। “कल रात सुना, चीनियों ने हमारी तीन चौकियाँ और जीत लीं,” लालशाह ने हाथ में सुरती मलकर, अपने मोटे लटके होठों के भीतर भरकर कहा। 
“अबे, हटा भी! कहाँ की मनहूस ख़बर ले आया! सारे पत्ते बिगाड़ दिए!” लालशाह को कुहनी से मारकर, विक्रम पालथी समेट, ओट में अपने पत्ते देखकर बोला, “ले, देखें चीनी एक हाथ हमारे साथ! दस-दस को इसी तरह पटक दूँगा!” पत्ते पटाख से ज़मीन पर फेंककर उसने कहा। पिछली बार वह अपनी शाहनी की, शुतुरमुर्ग के अंडों के आकार की नेपाली मुँगमाला यहीं हार गया था, इसी से साधारण पत्तों पर वह झूठी चाल नहीं चल रहा था।
“लो भई, एक चाल मेरी! चुटकियाँ बजाते महिम भट्ट ने सौ का नोट फेंका और गिद्ध दृष्टि से एक पल में न जाने किस जादुई शक्ति से सबके अदृश्य पत्ते भाँप लिए। पत्तों की गरिमा उसके लाल आलूबुखारे-से गालों पर भी उभर आई, मन के उत्साह को वह किसी प्रकार भी नहीं दबा पा रहा था। कभी चुटकियाँ बजाता, कभी खद्दर की टोपी को तिरछी करता, कभी गुनगुनाता और कभी ज़ोर-ज़ोर से अंग्रेज़ी गानों की बेसुरी आवृत्ति ही किए जा रहा था। खेल रंग पकड़ रहा था, फरफराते नोटों को एक बड़े से पत्थर से दाब दिया गया। महिम भट्ट की चाल ऐसी-वैसी नहीं होती, यह सब जानते थे। वह शून्य में लटकने वाला त्रिशंकु नहीं था। एक-एक कर सबने पत्ते डाल दिए। केवल एक व्यक्ति ही डटा रहा और वह था एक नौसिखिया खिलाड़ी, गुरुदास! कुछ खेल की ज़िद, कुछ चातुर्य से उकसाता खिलाड़ी महिम भट्ट उसे ले बैठे। पत्ते खुले, तो वह आठ हज़ार हार गया था। दोनों हाथ झाड़कर वह उठने लगा, तो लालशाह ने खींचकर बिठा दिया, “वाह-वाह! ऐसे नहीं उठ सकते मामू! खेल ठीक बारह बजे तक चलेगा।”
“अब है ही क्या जो खेलूँ!” गुरुदास ने फटे गबरून के कोट की दोनों जेबें उलट दीं।
“अमा, है क्यों नहीं? वह साली मेवे की दुकान का क्या अचार डालोगे? लग जाए दाँव पर, “महिम भट्ट ने चुटकियाँ बजाकर कहा और पत्ते बँट गए। बारह बजने में पाँच मिनट थे, पर गुरुदास की घड़ी में सब घंटे बज चुके थे – वह कौड़ी-कौड़ी कर जोड़ी गई आठ हज़ार की पूँजी ही नहीं, बाप-दादों की धरोहर अपनी प्यारी दूकान भी दाँव पर लगाकर हार चुका था। ठीक घड़ी के काँटे के साथ ही खेल समाप्त हुआ। एक-एक कर सब खिलाड़ी हाथों की धूल झाड़कर चले गए थे। कड़कड़ाती ठंड में पेड़ के एक ठूँठ तने पर अपनी कुबड़ी पीठ टिकाए, निष्प्राण-सा गुरुदास शून्य गगन को एकटक देख रहा था। अब वह क्या लेकर घर जाएगा? उसकी प्यारी-सी दूकान, जिसकी गद्दी पर वह छोटी-सी सग्गड़ में तीन-चार गोबर और कोयले के लड्डू धमकाकर, चेस्टनट-अखरोट और चेरी-स्ट्राबेरी को मोतियों के मोल बेचा करता था, अब उसकी कहाँ थी? महीने की रसद लाने के लिए पाँच का नोट भी तो नहीं था जेब में। टप-टपकर उसकी झुर्री पड़े गालों पर आँसू टपकने लगे, फटी बाँह से उसने आँखें पोंछी ही थीं कि किसी ने उसका हाथ पकड़कर बड़े स्नेह से कहा, “वाह दाज्यू! क्या इसी हौसले से खेलने आए थे? कैसे मर्द हो जी, चलो उठो, घर चलकर एक बाजी और रहेगी।”
गुरुदास ने मुड़कर देखा, उसका सर्वस्व हरण करने वाला महिम भट्ट ही उसे खींचकर उठा रहा था।
“क्यों मरे साँप को मार रहे हो भट्ट जी? अब है ही क्या, जो खेलूँगा।” बूढ़ा गुरुदास सचमुच ही सिसकने लगा।
“वाह जी वाह! है क्यों नहीं? असली हीरा तो अभी गाँठ ही में बँधा है। लो सिगार पिओ।” कहकर महिम ने अपनी बर्मी चुस्र्ट जलाकर, स्वयं गुरुदास के होठों से लगा दिया।
बढ़िया तंबाकू के विलासी धुएँ के खंखार में गुरुदास की चेतना सजग हो उठी, कैसा हीरा, भट्ट जी?”
महिम ने उसके कान के पास मुख ले जाकर कुछ फुसफुसा कर कहा और गुरुदास चोट खाए सर्प की तरह फुफकार उठा, “शर्म नहीं आती रे बामण! क्या तेरे खानदान में तेरी माँ बहनों को ही दाँव पर लगाया जाता था?”
पर महिम भट्ट एक कुशल राजनीतिज्ञ था, कौटिल्य के अर्थशास्त्र के गहन अध्ययन ने उसकी बुद्धि को देशी उस्तरे की धार की भाँति पैना बना दिया था। मान-अपमान की मधुर-तिक्त घूँटों को नीलकंठ की ही भाँति कंठ में ग्रहण करते-करते वह एकदम भोलानाथ ही बन गया था। कड़ाके की ठंड में आहत गुरुदास की निर्वीर्य मानवता को वह कठपुतली की भाँति नचाने लगा। “पांडवों ने द्रौपदी को दाँव पर लगाकर क्या अपनी महिमा खो दी थी? हो सकता है दाज्यू, तुम्हारी गृहलक्ष्मी के ग्रह तुम्हें एक बार फिर बादशाह बना दें।”
अपनी मीठी बातों के गोरख धंधे में गुरुदास को बाँधता, महिम भट्ट जब अपने द्वार पर पहुँचा, तो बूढ़ा उसकी मुठ्ठी में था। “देखो, इसी साँकल को ज़रा-सा झटका देना और मैं खोल दूँगा। निश्चित रहना दाज्यू, किसी को कानों-कान ख़बर नहीं लगने दूँगा।”
बिना कुछ उत्तर दिए ही गुरुदास घर की ओर बढ़ गया। दिन भर वह अपनी छोटी-सी दूकान में चेस्टनट, स्ट्राबेरी और अखरोट बेचता था। उसकी दुकानदारी सीजन तक ही सीमित थी, भारी-भारी बटुए लटकाए टूरिस्ट ही आकर उसके मेवे ख़रीदते। पहाड़ियों के लिए तो स्ट्रॉबेरी और अखरोट, चेस्टनट, घर की मुर्गी दाल बराबर थी। डंडी मारकर बड़ी ही सूक्ष्म बुद्धि से वह दस हज़ार जोड़ पाया था, दो हज़ार शादी में उठ गए थे। तिरसठ वर्ष की उम्र में उसने एक बार भी जुआ नहीं खेला था, किंतु आज लाल के बहकावे में आ गया था। लाल उसका भानजा था। “हद है मामू। एक दाँव लगाकर तो देखो! क्या पता, एक ही चोट में बीस हज़ार बना लो! न हो तो एक हाथ खेलकर उठ जाना।”
“तू आज भीतर से कुंडी चढ़ाकर खा-पीकर सोए रहना। मुझे भीमताल जाना है।” उसने पत्नी से कहा और गबरून के फटे कोट पर पंखी लपेटकर निकलने ही को था कि कुंदन-लगी नथ के लटकन की लटक ने उसे रोक लिया। सुभग-नासिका भारी नथ के भार से और भी सुघड़ लग रही थी। अठारह वर्ष की सुंदरी बहू को बिना कुछ कहे भला कैसे छोड़ आते! “अरी सुन तो,” कहकर उन्होंने पत्नी को खींच छाती से लगाकर कहा, “तू जो कहती थी न कि पिथौरागढ़ की मालदारिन की-सी सतलड़ तुझे गढ़वा दूँ! भगवान ने चाहा, तो कल ही सोना लेकर सुनार को दे दूँगा।” बिना कुछ कहे चंदो पति से अपने को छुड़ाकर प्रसाद बनाने लगी। तीन वर्ष से वह प्रत्येक दीवाली पर पति का यही व्यर्थ आश्वासन सुनती आई थी। उधर बूढ़ा लहसुन भी खाने लगा था, ऐसी दुर्गंध आई कि उसका माथा चकरा गया।
रिश्ते में बहू लगने पर भी वह चंदो की हमउम्र थी और दोनों में बड़ा प्रेम था। “मामी जी, आज खूब मन लगाकर लक्ष्मी जी को पूजना, मामा जी दस हज़ार लेकर जुआ खेलने गए हैं।” अपने सुंदर चेहरे से नथ का कुंदन खिसकाकर वह बोली।
जलते घी की सुगंधि से कमरा भर गया। “हट, आई है बड़ी! उन बेचारों के पास दस हज़ार होते तो कार्तिक में मेरी यह गत होती?” फटे सलूके से उसने अपनी बताशे-सी सफ़ेद कुहनी निकालकर दिखाई।
“तुम्हारी कसम मामी, ये भी तो गए हैं। इन्होंने अपनी आँखों से देखा।”
चंदो कढ़ाही में पूड़ी डालना भी भूल गई। कल ही उसने एक गरम सलूके के लिए कहा, तो गुरुदास की आँखों में आँसू आ गए थे, “चंदो, तेरी कसम, जो इस सीजन में एक पैसा नफ़ा मिला हो! न जाने कहाँ के भिखमंगे आकर नैनीताल में जुटने लगे हैं, अखरोट-चेस्टनट क्या खाएँगे? दो आने की मूँगफलियाँ ही लेकर टूँग लेते हैं। मेरा कोट देख!” कहकर उसने कोट की फटी खिड़की से कुरते की बाँह ही निकालकर दिखा दी थी। तू कहती क्या है बहू! दस हज़ार उनके पास कहाँ से आएँगे?”
“लो, और सुनो!” लालबहू झूँझलाकर उठ गई, तभी तो ये कहते हैं कि मामा जी ने पुण्य किए थे, जो मामी-जैसी सती लक्ष्मी मिली। मिलती कोई ऐसी-वैसी, तो जानते कै बीसी सैकड़ा होते हैं। चलूँ भाई, मुझे क्या! तुमसे माया-पिरेम है, इसी से न चाहने पर भी मुँह से निकल ही जाती है।”
वह चली गई, तो चंदा सोच में डूबी बैठी ही रह गई। सचमुच वह लक्ष्मी थी। सतयुग की सती, जिसका सुनहरा चित्र कलयुगी चौखटे में एकदम ही बेतुका लगता था। तीन वर्ष पहले उसके दरिद्र माता-पिता पिथौरागढ़ के अग्निकांड में भस्म हो गए थे। कभी उसने चावल चखे भी नहीं थे, मानिरा के माड से गुजर करने वाला उसका दरिद्र परिवार नष्ट हुआ तो बिरादरी वाले उस अनाथ सरल बालिका को नैनीताल के एक दूर के रिश्ते के ताऊ के मत्थे पटक गए। प्राय: ही वह गुरुदास की दूकान पर सब्ज़ी लेने जाती। कद्दू, मूली और पहाड़ी बंडे के बीच खड़ी उस रूप की रानी पर साहजी बुरी तरह रीझ गए और एक अंधे के हाथ बटेर लग गई। साठ वर्ष के साह ने सेहरा बाँधा, तो नैनीताल के उत्साही तरुण छात्रों ने काले झंडे लेकर जुलूस भी निकाला, पर जुलूस के पहले ही, पिछवाड़े से साहजी अपनी दुल्हन को लेकर घर पहुँच चुके थे।
वह साह की तीसरी पत्नी थी, इसी से उसका जी करता था कि उसे भी चूल्हे के नीचे अपनी दस हज़ार की संपत्ति के साथ गाड़कर रख दे, पर धीरे-धीरे उस सौम्य संत बालिका के साधु आचरण ने उसके शक्की स्वभाव को जीत लिया। न वह पास-पड़ोस में उठती-बैठती, न कहीं जाती। गुरुदास दूकान पर जाता, तो वह अपने प्रकाशविहीन कमरे में पति के पूरी बाँह के जीर्ण स्वेटर को उधेड़कर आधी बाँह का बनाती, तो कभी आधी बाँह के पुराने बनियान से मोजे बनाती। गुरुदास नया ऊन तो दूर, सलाइयाँ भी लेकर नहीं देता था। एक बार उसने सलाइयों की फ़रमाइश की, तो चट से गुरुदास ने अपने पुराने छाते से ही मोड़-माड़कर विभिन्न आकार की चार जोड़ा सलाइयाँ बना दी थीं। किंतु पड़ोसिनों और आत्मीय स्वजनों के उभारे जाने पर भी चंदो ने कृपण पति के प्रति बगावत का झंडा नहीं खड़ा किया। उसे सचमुच ही पति के प्रति अनोखा लगाव था। उस लगाव में प्रेम कम, कृतज्ञता ही अधिक थी किंतु बचपन से वह बूढ़ी दादी और पतिपरायण माता से पतिभक्ति का ही उपदेश सुनती आई थी, “पति से द्रोह करने वाली स्त्री की ऐसी दशा होती है!” दादी ने अपढ़ भोली बालिका को ‘कल्याण’ में चील-कौओं से नोंची जानेवाली छटपटाती स्त्री का चित्र दिखाकर कहा था।
फिर गुरुदास उसे बड़े ही प्यार से पुचकारकर बुलाता, बड़े से दोने में भरकर जलेबी लाने में वह कभी कंजूसी नहीं दिखाता था और जिसे जीवन के पंद्रह वर्षों में मिठाई तो दूर, भरपेट अन्न भी न जुटा हो, उसके लिए नित्य जलेबी का दोना पकड़ाने वाला पति परमेश्वर नहीं तो और क्या होता! गुरुदास चंदो के अंधकारमय जीवन का प्रथम प्रकाश था। वह अपनी खिड़की से नित्य नवीन साड़ियों में मटकती, सीजन की सुंदरियों को देखती, तो कभी उसे डाह नहीं होती। गुरुदास दूकान लौटता, संकरी सीढ़ियों पर पति की फटीचर जूतियों की फत्त-फत्त सुनकर वह आश्वस्त होकर उठती, गरम राख से अंगारे निकालकर आग सुलगाती, चाय बनाकर पति को देती, उँगलियाँ चाट-चाट कर चटखोरे लेती, जलेबी का दोना साफ़ करती और फिर नित्य मंदिर जाती। मंदिर के रास्ते में उसे प्राय: ही डिगरी कॉलेज के मनचले लड़के ‘वैजयंती माला’ कहकर छेड़ भी देते, पर उनके फ़िल्मी गाने, सीटियाँ और हाय-हूय उसे छू भी नहीं सकते। वह सिर झुकाए मंदिर जाती, नित्य देवी से आँखें मूँदकर एक ही वरदान माँगती, “मेरा सौभाग्य अचल हो माँ!” शायद उसकी सरल, निष्कपट प्रार्थना ने बूढ़े गुरुदास के समग्र रोगों से एक साथ मोर्चा ले लिया था। उसी बुढ़ापे में भी वह लहलहाने लगा था। पास-पड़ोस की स्त्रियों ने गुरुदास के कृपण स्वभाव की आलोचना को नित्य नवीन रूप देकर चंदो को भड़काने की कई चेष्टाएँ कीं, पर वे विफल ही रहीं। रवि, सोम और बुध को चंदो मौनव्रत धारण करती थी। मंगल, शनि को पहाड़ की स्त्रियाँ, मिलने-मिलाने कहीं नहीं जातीं। बृहस्पति को वे दल बाँधकर आतीं, पर गुरुदास का प्रसंग छिड़ते ही, चंदो कोई-न-कोई बहाना बनाकर उठ जाती। आज लालबहू ने उसका चित्त खिन्न कर दिया था, जिस पति को देवता समझकर पूजती थी, क्या वही उसे धोखा दे गया?
उसका नियम था कि वह पति के आने तक सदा बैठी रहती। आज भी वह बैठी थी। पति की परिचित पदध्वनि सुनकर वह उसे असंख्य उपालंभो से बींधने को व्याकुल हो उठी, पर सौम्यता और शील ने उसके चित्त पर काबू पा लिया। हँस कर वह पति का स्वागत करने बढ़ी, पर पति के सूखे चेहरे ने उसे पीछे धकेल दिया, हार तो नहीं गए?
“चंदो!” गुरुदास का गला भर्रा गया। दस-ग्यारह दीये अभी भी टिमटिमा रहे थे, उन्हीं के अस्पष्ट आलोक में पति के कुम्हलाए चेहरे को देखकर चंदो का हृदय असीम करुणा से भर आया। ममता तो अपने पाले कुत्ते पर भी हो आती है, फिर वह तो उसे ही पालनेवाला स्वामी था।
“तू जल्दी पंखी डालकर मेरे साथ चल।”
कहाँ चलने को कह रहे हैं इतनी रात? – बिना कुछ कहे ही चंदो ने अपनी गूँगी दृष्टि पति की ओर उठाई।
“तुझसे झूठ नहीं बोलूँगा, चंदो! आठ हज़ार और दूकान सब-कुछ हार गया हूँ। महिम कहता है कि घर की लक्ष्मी को बगल में बिठाकर दाँव फेंकूँ, तो शायद जीत जाऊँ। चलेगी न?” वह गिड़गिड़ाने लगा।
सरल-निष्कपट चित्त के दर्पण में संसार की कलुषित-फरेबी चालें कितनी स्पष्ट होकर निखर आती हैं। चंदो पलक मारते ही सब समझ गई। आधी रात को उसका पति उसे महिम भट्ट के यहाँ दाँव पर लगाने के लिए ही ले जा रहा था। दो ही दिन पहले वह मंदिर के द्वार में महिम भट्ट से टकरा गई थी। कैसा सुदर्शन व्यक्ति, किंतु कैसी कुख्याति थी उसकी! पास-पड़ोस में नित्य ही वह उसके दुर्दांत कामी स्वभाव की बातें सुनती। वह युवती-विधवाओं के लिए व्याघ्र था, कितनी ही अल्हड़ किशोरियाँ उसके वैभव और व्यक्तित्व से रीझकर लट्टू-सी घूमने लगी थीं। फिर भी न जाने अन्याई में कैसा जादू था कि एक बार देखने पर सहज ही में दृष्टि नहीं लौटी थी।
“चल-चल, चंदो, देर मत कर,” उसे अपनी फटी पंखी में लपेट द्वार पर ताला लगा, गुरुदास उसे निर्जन सड़क पर खींच ले गया।
महिम भट्ट के पिछवाड़े से होकर दोनों उसके गुप्त द्वार पर खड़े हो गए। लोहे की विराट सांकल पर लगी छोटी-सी घंटी को दबाते ही द्वार खुल गया।
“आइए भौजी, आइए-आइए! मेरे अहोभाग्य जो कुटिया को पवित्र तो किया!”
महिम के काले ओवरकोट से उठती सुगंधि की लपटों ने चंदो को बाँध लिया। एक संकरी गैलरी को पार कर तीनों महिम की कुटिया के दीवानखाने में पहुँचे, तो उसका वैभव देखकर चंदो दंग रह गई। छत से एक अजीब झाड़-फानूस लटक रहा था, जिसकी नीलभ रोशनी में फटी पंखी में लिपटी कृशकाया चंदो बुत-सी खड़ी ही रह गई।
“बैठो-बैठो, भौजी, लो गरम कॉफी पियो!” पास ही धरे कीमती थरमस से कॉफी डालकर महिम ने कहा। चंदो सकुचाकर पति की ओट में छिप गई।
“ओहो, दाज्यू, ऐसे हीरे को तो इस गुदड़ी में न छिपाया होता! ठीक ही तो कहते हैं कि गुदड़ियों में ही लाल छिपे होते हैं! लो भौजी यह शाल ओढ़ो। यह पंखी तो तुम्हारा अपमान कर रही हैं” अपना कीमती पश्मीना उसकी ओर बढ़ाकर महिम ने कहा। लज्जावनता चंदो ने प्याला थामा, तो दोनों हाथों से पकड़कर ओढ़ी गई पंखी नीचे गिर पड़ी। नीचे क्या गिरी कि कृष्ण मेघ को चीरकर धौत चंद्रिका छिटक गई। सब भूल-भालकर महिम उसे ही देखता रहा। ऐसा रूप! क्या रंग था, क्या नक्श और बिना किसी बनावटी उतार-चढ़ाव के! चंदन-सी देह का क्या अपूर्व गठन था! लज्जा, शील और भय से सारे शरीर का रक्त चंदो के चेहरे पर चढ़कर सिंदूर बिखेर उठा। नारी-सौंदर्य का अनोखा जौहरी महिम उसके अंग-प्रत्यंग की सचाई को अपने अनुभव की कसौटी पर कस रहा था और खरे कुंदन की हर लीक उस पद-पद पर मत्त कर रही थी।
“अच्छा! अब देर कैसी भट्ट जी? हो जाए आखिरी दाँव!” गुरुदास ने प्याले की चीनी को अँगुली से चाट कर कहा।
“क्यों नहीं, क्यों नहीं!” महिम ने चाँदी के पानदान से कस्तूरी बीड़ा दोनों की ओर बढ़ाकर कहा, “दाँव तो लगा रहे हो दाज्यू, पर क्या भाभी से पूछ लिया है?
विजयी, मुँहफट, उद्दाम यौवन की चोट से गुरुदास की जर्जर काया काँप उठी।
“बुरा मान गए दाज्यू?” महिम ने बीड़े से गाल फुलाकर कहा, “हिसाब-किताब साफ़ रखना ठीक ही होता है। देखो भाभी, दाज्यू आज सब कुछ मुझसे हार गए हैं। तुम्हें ही दाँव पर लगाने का सौदा तय हुआ है। ज़रूरी नहीं हैं कि तुम्हें हार ही जाएँ। हो सकता है कि तुम्हारी शकुनिया देह की बाजी इन्हें खोए आठ हज़ार दिलाकर, एक बार फिर मेवे की दूकान पर बिठा दे। पर अगर हार गए, तो तुम आज ही की रात से मेरी रहोगी। तुम्हारे जीवन की प्रत्येक रात्रि पर मेरा अधिकार रहेगा। मैं इसका विशेष प्रबंध रखूँगा कि तुम्हारे पति की हार और मेरी जीत का भेद प्राण रहते हम तीनों को छोड़ और कोई भी नहीं जान पाएगा। तुम्हारी अटूट पति भक्ति का बड़ा दबदबा है और इससे मुझे बड़ी मदद मिलेगी। तुम्हारे पति यदि हार गए, तो?”
बीच ही में महिम को रोककर गुरुदास क्रोध से काँपता खड़ा हो गया। गुस्सा आने पर बलगम का गोला घर-घर कर पुरानी जीप के इंजन की भाँति उसके गले में घरघराने लगता था। अवरुद्ध कंठ से दोनों मुठि्ठयाँ भींचकर वह बोला, “मैं कभी हार नहीं सकता, कभी नहीं!”
“अच्छा, भगवान करे ऐसा ही हो दाज्यू! जल्दी क्या है? बैठो तो सही, “मुस्कराकर महिम ने उसे हाथ पकड़कर बिठा दिया और ओवरकोट उतारकर पत्ते हाथ में ले लिए। गरम धारीदार नाइट ड्रेस में सुदर्शन तेजस्वी, नरसिंह महिम भट्ट, पान और दोख्ते से अपने विलासी अधरों की मुस्कान बिखेरता, गावतकिये के सहारे लेटा, पत्ते बाँटने लगा। दूसरी ओर गबरून के कोट की फटी कुहनियों से, लहसुन की गाँठ-सी हडि्डयाँ निकाले, दोरंगी मफलर से अपनी लाल-गीली नाक को बार-बार पोंछता गुरुदास जोर से देवी कवच का पाठ कर रहा था -“रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि। उन दोनों विवेकभ्रष्ट जुआरियों के बीच काँपती-थरथराती चंदो-कुमाऊँ की सरला पतिव्रता किशोरी, जिसके लिए पति की आज्ञा कानून की अमिट रेखा थी, जो पति की आदेशपूर्ण वाणी को ब्रह्मवाक्य समझकर ग्रहण करने को सदा तत्पर थी। पत्ते बँटे, चालें चली गईं, गुरुदास के बूढ़े चेहरे पर सहसा जवानी झलकने लगी। खुशी से झूमकर बूढ़ा नाच-नाचकर, महिम के सामने ही चंदो को पागलों की तरह चूमने लगा। वह बेचारी लज्जा से मुँह ढाँपकर पीछे हट गई।
“ठीक है, ठीक है दाज्यू! दिल के अरमान निकाल लो। फिर मत कहना कि मैंने मौका नहीं दिया।” अपने पत्तों को चूमकर महिम ने माथे से लगाकर कहा।
“अबे, जा हट! आया बड़ा मौका देने वाला! ऐसे पत्ते ब्राह्मणों के पास नहीं आया करते, वैश्य पर ही लक्ष्मी जी कृपालु होती हैं, हाँ!” गुरुदास ने फिर नाक पोंछकर कहा।
“क्यों नहीं, क्यों नहीं! पर मैं तो तुम्हें आगाह किए दे रहा हूँ। दाज्यू, जरा सँभल के आना, यहाँ भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं।”
महिम ने चाल तिगुनी की। पत्तों को बार-बार चटखारे लेकर चूमता वह चंदो की ओर देखकर ऐसी धृष्टता से मुस्करा रहा था, जैसे पत्तों को नहीं उसे चूम रहा हो। गुरुदास ने देख लिया और गुस्से से भर-भराकर वह पत्ते पकड़कर उठ गया। उसका शक्की स्वभाव अब तक खेल की लग्न में कुंडली मारे सर्प की तरह छिपा था, “देखो, हम ताश खेलने आए हैं, इशारेबाजी देखने नहीं।”
“वाह यार दाज्यू, कैसे खिलाड़ी हो! ट्रेल आने पर ही पत्ते चूमे जाते हैं।” महिम के स्वर में अहंकार था।
“किसे सुना रहे हो गुरु! यहाँ भी ट्रेल है।” बूढ़ा बुरी तरह हाँफने लगा।
“कोई बात नहीं। इसमें घबराहट कैसी! लाखों ट्रेलें देखी हैं शाह जी!”
द्यूत-क्रीड़ा के छिपे दानव ने दोनों को सहसा विवेक की चट्टान से बहुत नीचे पटक दिया। चंदो बेचारी के लिए सब कुछ नया था। वह दोनों हाथ गोदी में धर, आँखें फाड़कर दोनों को देख रही थी। उसकी विस्फारित भोली दृष्टि देखकर महिम से नहीं रहा गया।
“तो लो दाज्यू, खोलो पत्ते!” इसने सौ का नोट फेंका और अपने पत्ते भी खोल दिए। तीन-तीन इक्कों की ट्रेल ने बूढ़े की छाती में तीन-तीन नंगी संगीनें घुसेड़ दीं। उसके हाथ से गिरी पान, हुकुम और इंर्ट की बेगमें जमीन पर सिर धुन उठीं।
“वाह-वाह! तीन-तीन बेगमें भी तुम्हारी चौथी बेगम को नहीं बचा सकीं!” महिम ने हँसकर कहा। गुरुदास कुछ देर पत्थर की तरह बैठा रहा, फिर अपने गंदे रूमाल से आँख और नाक की जल-धारा पोंछता एक बार चंदो की ओर देखकर बुरी तरह सिसकता किसी पिटे बालक की भाँति गिरता-पड़ता बाहर निकल गया।
महिम ने कुंडी चढ़ा दी और बड़े प्यार से चंदो की नुकीली ठुड्डी हाथ में लेकर बोला, “भाभी, आज से मैं जुआ नहीं खेलूँगा। जानती हो क्यों? आज संसार की सबसे बड़ी संपत्ति जीत चुका हूँ।”
बड़ी देर बाद कार्तिक की ओस-भीनी रात्रि के अंतिम प्रहर में काँपती चंदो को उसके गृह के जीर्ण जीने तक पहुँचाकर महिम तीर की भाँति लौट गया। वह कमरे में पहुँची तो कमरा खाली था। गुरुदास तड़के ही उठकर, पाषाण देवी के मंदिर में, नित्य माथा टेकने जाता था। वह चुपचाप फटी रजाई सिर तक खींचकर सो गई। कैसी नींद आई थी, बाप रे बाप! “मामी-मामी! उठो गजब हो गया!” लालबहू का कंठ-स्वर सुन वह हड़बड़ाकर उठी।
“मामी, मामाजी ताल में कूद गए। मंदिर के पुजारी ने देखा, काँटा डाला है, पर लाश नहीं मिली। नाश हो इन जुआरियों का! बेचारे को लूट पाट कर धर दिया!”
स्तब्ध चंदो द्वार की चौखट पकड़े ही धम्म से बैठ गई। किसने उसका सिंदूर पोंछा, किसने चूड़ियाँ तोड़ीं और कौन नोचकर मंगलसूत्र तोड़ गई, वह कुछ भी नहीं जान पाई। वह पागलों-सी बैठी ही थी।
“राम-राम!” बेचारा आठ हज़ार नकद और दूकान सब-कुछ ही तो दाँव में हार गया! वही धक्का उसे ले गया।” पंडित जी कह रहे थे, “सोलह बरस से मेरा यजमान था। बड़ा नेक आदमी था।”
अब तक चुप बैठी चंदो, दोनों घुटनों में माथा डालकर ज़ोर से रो पड़ी। एकाएक जैसे उसे रात की बिसरी बातें याद हो आईं। दूकान और आठ हज़ार का धक्का नहीं, उसके पति को जिस दूसरे ही दाँव की हार का धक्का ले गया था, उसे क्या कभी कोई जान पाएगा?
Tags: शिवानी
Admin

Admin

Related Posts

संस्कृतिमवन्ती अवन्तिका :  डॉ. पवन व्यास

संस्कृतिमवन्ती अवन्तिका : डॉ. पवन व्यास

by Admin
December 19, 2017
0
135

हमारी उज्जयिनी प्राचीन काल से ही शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रही है । मुझे ऐसा लगता है कि ’गुरुभूमि’ के...

वराहमिहिर : डाॅ. मुरलीधर चाँदनीवाला

वराहमिहिर : डाॅ. मुरलीधर चाँदनीवाला

by Admin
December 18, 2017
0
70

वराहमिहिर तुम पहले व्यक्ति हो वराहमिहिर! जो अवन्तिका से निकले तो फैल गये अखंड भारत में, उज्जयिनी में नहीं होकर...

कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन ? – निरंजन श्रोत्रिय

कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन ? – निरंजन श्रोत्रिय

by Admin
December 17, 2017
0
162

कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन ? मेरा सिर गरम है इसीलिये भरम है सपनों में चलता है आलोचन विचारों के...

भर्तृहरि : डाॅ.मुरलीधर चाँदनीवाला

भर्तृहरि : डाॅ.मुरलीधर चाँदनीवाला

by Admin
December 14, 2017
0
75

भर्तृहरि ------ भर्तृहरि लौट-लौट आते हैं अवन्ती में, खड़े होते हैं कल्पलता के नीचे कभी मौन,कभी मुखर। वैराग्य के जंगल...

हे उज्जयिनी! तू बुला ले अपने पास।

हे उज्जयिनी! तू बुला ले अपने पास।

by Admin
December 7, 2017
0
267

  डाॅ.मुरलीधर चाँदनीवाला   बरसों से भटक रहा हूँ इधर-उधर जीवन बहती नदी की तरह निकल गया बहुत आगे, अब बैठता...

उज्जयिनी जयते : आचार्य श्रीनिवास रथ

उज्जयिनी जयते : आचार्य श्रीनिवास रथ

by Admin
December 5, 2017
0
51

-- महाकालपूजास्वरललिता कालिदासकविताकोमलता भुवनमलंकुरुते। उज्जयिनी जयते।। -- सान्दीपनिसन्दीपितसंस्कृति-शिक्षापरम्परा प्रतिपलमञ्जुलदीपशिखोज्ज्वलमंगलनाथधरा। देवलोकरुचिरा गगनतले ललिते उज्जयिनी जयते।। -- उदयनवीणावादनपुलकितवदना संकुचिता वासवदत्ता चकिताऽऽकुलिता सुप्तेवालिखिता।...

Next Post

मारे गये ग़ुलफाम उर्फ तीसरी कसम

Recommended

वो तेरा घर, ये मेरा घर

वो तेरा घर, ये मेरा घर

11 years ago
72
नये साल का जश्न

नये साल का जश्न

11 years ago
6

Popular News

    Connect with us

    • मुखपृष्ठ
    • इतिहास
    • दर्शनीय स्थल
    • शहर की हस्तियाँ
    • विशेष
    • जरा हट के
    • खान पान
    • फेसबुक ग्रुप – उज्जैन वाले
    Call us: +1 234 JEG THEME

    सर्वाधिकार सुरक्षित © 2019. प्रकाशित सामग्री को अन्यत्र उपयोग करने से पहले अनिवार्य स्वीकृति प्राप्त कर लेवे.

    No Result
    View All Result
    • मुखपृष्ठ
    • इतिहास
    • दर्शनीय स्थल
    • शहर की हस्तियाँ
    • विशेष
    • जरा हट के
    • खान पान
    • फेसबुक ग्रुप – उज्जैन वाले
      • आगंतुकों का लेखा जोखा

    सर्वाधिकार सुरक्षित © 2019. प्रकाशित सामग्री को अन्यत्र उपयोग करने से पहले अनिवार्य स्वीकृति प्राप्त कर लेवे.

    Login to your account below

    Forgotten Password?

    Fill the forms bellow to register

    All fields are required. Log In

    Retrieve your password

    Please enter your username or email address to reset your password.

    Log In
    This website uses cookies. By continuing to use this website you are giving consent to cookies being used. Visit our Privacy and Cookie Policy.