पचास साल पहले : उज्जैन | डाॅ.मुरलीधर चाँदनीवाला


1-1955-56 में हमारा परिवार सतीगेट से सटे हुए मकान में रहता था।नीचे जनसेवा केमिस्ट की दुकान थी। दूसरे आमचुनाव के दौर में वहाँ श्री बाबूलाल जैन सा.से जनसंघ के दीपक वाले बिल्ले बटोर कर लाने का बड़ा चाव था।सामने लूला इत्र भंडार था,और वहीं कहीं पास में नीचे ओटले पर आजके गुप्ता बुक डिपो के आधारस्तम्भ रह चुके सेठ पट्टियाँ और पेम लेकर बैठते थे।
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2-वह दिन मैं कभी नहीं भूलता ,जब प्रथम कालिदास समारोह में देश के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ.राजेन्द्रप्रसाद उज्जैन आये थे। आजकी तरह प्रोटोकाॅल नहीं था तब। राष्ट्रपति पूरे दिन उज्जैन में थे। बहुत सुंदर ढंग से उज्जैन की सड़कों पर वंदनवार सजाये गये थे,जो सामान्यतः रंगीन कपड़े पर रुई चिपका कर बनाये गये बैनर ही थे। रात को मुझे बड़े भाई साहब रेल्वे स्टेशन ले गये थे,जहाँ से राष्ट्रपति जी बिदा लेने वाले थे। अद्भुत नजारा था। राष्ट्रपति जी कम्पार्टमेंट में गेट पर खड़े थे।गाड़ी चलने वाली थी। उधर गार्ड हरी झंडी दिखा रहा था,इधर इंजिन ने सीटी मारी। गाड़ी छुक्-छुक् चल रही थी,और राष्ट्रपति जी हाथ हिलाकर अभिवादन कर रहे थे। कोई भीड़-भाड़ न थी। सब कुछ सामान्य परिदृश्य था।
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3- 1957 में हम लोग बहादुरगंज में आ गये थे। आचार्य श्रीनिवास रथ की नई-नई शादी हुई थी। वे अक्सर घर आते रहते थे। हमारे यहाँ आते तो फिर सामने ही दादा चिन्तामणि उपाध्याय के यहाँ भी जाते।मैं दौलतगंज स्कूल में पढता था। लक्ष्मीनारायण शर्मा हमारे प्रधानाध्यापक थे,जो बरसों तक मालीपुरा में रहे। पिताजी बनारस से लौटे थे आचार्य होकर,और यहाँ विक्रम विश्वविद्यालय के प्रथम बैच में संस्कृत विषय लेकर एम. ए.कर रहे थे। प्रो.वेंकटाचलम् साहब भी घर आते। तब”वेणीसंहार”नाटक की प्रेक्टिस घर पर होती। पिताजी ने नाटक में कर्ण की भूमिका में जो संवाद बोले थे,वे हमें भी याद हो गये थे।
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4-1960 के आसपास पिताजी महाराजवाड़ा स्कूल में लाइब्रेरियन थे। मंगलाकान्त बी.लालगे वहाँ प्राचार्य थे। अदुभुत स्कूल था तब यह। लालगे साहब के जमाने को लोग आज भी याद करते हैं। एन.सी.सी.की तर्ज पर उन्होंने एम.सी.सी.महाराजवाड़ा कैडेट कोर चला दिया था। आज भी महाराजवाड़ा में उस दौर के चिन्ह दिखाई देते हैं।
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5-मैं 60-61 में चलशाला में अध्ययनरत था। नये लोग चकित होंगे कि चलशाला महाकाल मंदिर के भीतरी अहाते में लगती थी। बड़ा अच्छा लगता था वहाँ। एक मजे की बात-रैसेस में महाकाल मंदिर के बाहर चाट वाला बहुत आकर्षित करता था। जेब में पैसे नहीं होते थे।कभी-कभी हम दो-चार दोस्त मंदिर परिसर के हनुमान मंदिर से पैसे उठा लाते,और चाट का आनंद लूटते। ऐसा करते हुए हममें कभी अपराधबोध नहीं जागा।
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6-इन्हीं दिनों हमारे स्कूल की बिल्डिंग बनकर तैयार हुई हरसिद्धि के पास नूतन माध्यमिक विद्यालय के नाम से। हम वहाँ चले गये। रामरतन ज्वेल,अविनाश सरमंडल,देवकरण जेम्स,कपूर साहब,जमनादास पंथी हमारे शिक्षक थे। पुरुषोत्तम दीक्षित जैसा प्रधानाध्यापक हमने दूसरा नहीं देखा।
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7-स्कूल में पंडित सूर्यनारायण व्यास जी का अच्छा खासा वर्चस्व था। वे प्रायः स्कूल में आते रहते थे। उनका ज्येष्ठपुत्र रश्मिकान्त कक्षा छठी से लेकर एम.ए.करने तक मेरा सहपाठी रहा।स्कूल से घर आते-जाते प्रतिदिन पंडित जी से भेंट होती।बड़ा गर्व महसूस होता।वे हमसे घुल-मिलकर बातें करते।
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8-31 दिसम्बर1961 को पहली बार मैंने मदनमोहन मालवीय जन्मशताब्दी के अवसर पर भाषण दिया,और प्रथम पुरस्कार पाने में सफल रहा। इसके लिये पंडित जी ने मुझे अलग से एक पेन पुरस्कार में दिया था।
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9-1962 में भारत-चीन युद्ध के आगाज के साथ ही हम सहपाठियों में देशप्रेम की उमंग जाग उठी थी। छत्रीचौक में डाॅ. माछांगसिंह के निवास पर कड़ा पहरा था। हम उनकी एक झलक पाने के लिये उस रास्ते से कई बार निकलते।
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10-उन दिनों रायसिंह बैंड का उज्जैन में बड़ा प्रभाव था। मास्टर रायसिंह एक बार के सौ रुपये लेते थे। यह राशि व्यय करना सबके बस में नहीं था। उनका राजकुमार जब वायलिन लेकर बजाने लगता,तब राही जहाँ के तहाँ खड़े रह जाते थे।
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11- उस दौर में उज्जैन में दो ध्रुव थे-एक तो पं.सूर्यनायण व्यास और दूसरे डाॅ.शिवमंगलसिंह सुमन। पूरा उज्जैन इन दोनों से धन्य था। इनकी सिफारिश से सबके सब काम हो जाते थे।
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12-एक थे हमारे कलानिधि चंचल। सिंहपुरी में रहते थे,और कलायतन संस्था चलाते थे। घर पर गोष्ठियाँ होती,तो हमें भी बुलाते। इसी तरह महेशशरण जौहरी’ललित” भी संघर्षरत थे,लेकिन नये रचनाकारों को प्रोत्साहित करते रहते।
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13-दोस्तों में हम सबका आदर्श था-अरविंद दशोत्तर। एक अच्छा समूह था हमारा,जिसमें अरविन्द के अलावा जिनेन्द्र पारख,अशोक वक्त,चंद्रप्रकाश मेहता,कैलाश दायमा,आलोक मेहता,और भी कई।
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14-आलोक मेहता और मैं जूना महाकाल परिसर में “प्रोज एंड वर्स”की समरी और सेंट्रल आइडिया के अलावा कोश्चन-एंसर रटा करते थे परीक्षा के दिनों में।
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15-महाकाल घाटी पर घाटी वाले वैद्य जी के नाम से मशहूर अम्बाशंकर भीमाशंकर वैद्य के यहाँ रोज का आना-जाना था। उनका एक बेटा बमशंकर मेरा पक्का दोस्त था। वैद्यजी बहुत मस्त तबीयत के इंसान थे। टाइफाइड का रामबाण इलाज करते थे,केवल रोगी के अन्तर्वस्त्र को लैंस के जरिये परख कर।
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16-1962 में मैं पहली बार कार्तिक मेले के मालवी कवि सम्मेलन में मंच पर जा पहुँचा था,और गिरवरसिंह भँवर,भावसार बा,सुल्तान मामा,बालकवि बैरागी की उपस्थिति में जोरदार कविता सुना आया था-“जमानो बदली गयो भई जमानो बदली गयो। एक भई दूसरा को दुश्मन बणी गयो।” बाद में यह कविता खूब चल निकली।
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17- नूतन स्कूल में ही उन दिनों गीतकार शैलेन्द्र,मैथिलीशरण गुप्त,निराला जी ,नेहरू जी और फिर शास्त्री जी के निधन का समाचार सुना।
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18- रीगल टाॅकीज,प्रकाश टाॅकीज में फिल्म देखने का सबसे बड़ा आकर्षण होता था उन दिनों,नेहरू जी के निधन और अंत्येष्टि की न्यूज रील। हाॅल में पूरे समय सन्नाटा होता था।
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19- नेहरू जी का अस्थिकलश जब उज्जैन लाया गया,उसे सम्मानपूर्वक मुख्य मार्ग से ले जाया गया। जीवाजीराव सिंधिया के अस्थिकलश को भी उज्जैनवासियों ने अपूर्व सम्मान दिया था।
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20-छत्रीचौक में श्रीकृष्ण सरल ने भगतसिंह पर लिखे अपने महाकाव्य का विमोचन भगतसिंह की माँ के हाथों कराया था। कवि ने महाकाव्य माँ की गोद में रख दिया,और हो गया विमोचन।मार्मिक दृश्य था वह।
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21-उज्जैन में शारीरिक दक्षता के लिये तब एक ही केन्द्र था-अच्युतानंद प्रासादिक व्यायामशाला।वहाँ अण्णा हम सबका बहुत ध्यान रखते। मैं और मेरा छोटा भाई बिना नागा शाम को जाते,मल्लविद्या सीखते तो क्या थे,सीखने का अभिनय ही ज्यादा करते।मलखंब पर भी जोर-आजमाईश करते। खास चीज तो थी,शनिवार को मारुतिनंदन की पूजा के बाद बँटने वाला पेड़े का प्रसाद। बड़ा अच्छा लगता था।
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22- व्यायामशाला के सामने ही एक छोटी सी दुकान थी,जिसके बाहर बोर्ड लगा था-“यहाँ मृत्यु का सामान मिलता है”।उस बोर्ड को अनदेखा करके निकलते हुए भी उससे भय लगता था।अब वहाँ वह बोर्ड दिखाई नहीं देता।
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23-हरसिद्धि मंदिर के पीछे एक बंगाली बाबा हुआ करते थे। वे अपने को सुभाषचंद्र बोस का मित्र बताते थे। हम उनके पास जाते रहते। उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। उघाड़े बदन रहते। कटि से नीचे धोती पहनते,और पूरे शरीर में भस्म रमाये रहते। विजया( भांग ) के शौकीन थे। कागज पर लिखकर देते-“विजया भेज”।
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24- हमारे नूतन स्कूल के बिलकुल सामने रुद्रसागर तालाब था,और उसके मध्य वह टीला,जहाँ अब विक्रमादित्य की विशाल प्रतिमा है । हम कुछ दोस्त मिलकर आधी छुट्टी में वहाँ कुछ न कुछ खोदते रहते। हमें भरोसा था कि वहाँ विक्रमादित्य का बत्तीस पुतलियों वाला सिंहासन दबा हुआ है।
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25- उज्जैन की जब याद आती है,तब नंदलाल पोद्दार की याद भी आती है। यह शख्स चिंतामणि गणपति के वहाँ रेलगाड़ी रुकवाने के लिये पटरी पर लेट गया था। तभी से वहाँ चिंतामण जवासिया रेल्वे स्टेशन कायम हुआ।
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26-उज्जैन के शिप्रा के घाटों में सबसे सुंदर लगता था-नृसिंह घाट। अजीब शान्ति लगती थी वहाँ।
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27-पटनीबाजार में सराफा स्कूल के पास बाकड़िया बड़ कैसे भुलाया जा सकता है। यह अब न होकर भी है वहाँ,जैसे मगरमुहाँ में मगर और आगर लाईन पर कछुए की चाल से चलती वह रेलगाड़ी।
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28- उसी दौर में महाराजवाड़ा स्कूल में एक प्राचार्य थे-एम.पी.चतुर्वेदी। लालगे साहब के बाद वे ही प्राचार्य बनकर आये थे वहाँ।उन्हें जब राष्ट्रपति पुरस्कार मिला ,तब उनके सम्मान में पूरा उज्जैन उमड़ गया था। तब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के तत्वावधान में जोरदार अभिनंदन समारोह नगरपालिका के प्रांगण में वि.श्री.वाकणकर जी के नेतृत्व में आयोजित हुआ था। अभिनंदनपत्र वाकणकर जी ने अपने हाथ से लिखा था। मैंने भी सम्मान में एक कविता सुनाई थी।
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29-1967 में सुमन जी की पचासवीं वर्षगाँठ मनाई गई थी। कार्यक्रम थियासाॅफिकल सोसाइटी के सभागृह में शाम को हुआ था। सुमन जी सफेद धोती-कुर्ता पहन कर आये थे।”तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार”पर छात्राओं ने नृत्य-नाटिका प्रस्तुत की थी।
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30-छत्रीचौक में बड़ी-बड़ी आमसभाएँ होती रहती थी। याद है ,केन्द्रीय मंत्री सी. सुब्रम्हण्यम् का भाषण वर्ष1965 में। वे अंग्रेजी में बोल रहे थे ,और हिन्दी अनुवाद करते जा रहे थे प्रकाशचंद्र सेठी।
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31-छत्रीचौक में हातिम भाई फिदा हुसैन संदलवाला की दुकान अब से साठ बरस पहले भी असाधारण थी। उस समय भी इनके यहाँ घर पहुँच सेवा थी,और सामान की शुद्धता की गारंटी भी।
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32-राजेन्द्र जैन ब्रिगेडियर अखबार निकालते थे,हम जैसे छोटे रचनाकारों को स्थान देते थे। यही बात रामकिशोर गुप्ता और प्रेमनारायण पंडित के साथ भी थी। वे दोनों दैनिक प्रजादूत में नये लेखकों को आगे करते। मेरा तो एक पूरा उपन्यास”साकार स्वप्न”प्रजादूत में 25 किश्तों में छापा था उन्होंने।
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33-कुछ चर्चित लोग याद आते हैं-तब नगरपालिका के अध्यक्ष सत्यनारायण जोशी, काका मोड़सिंह,महादेव गोविंद जोशी,अब्दुल गय्यूर कुरैशी, बंसीधर मेहरवाल,अवंतीलाल जैन, मानसिंह राही,शिवकुमार वत्स,श्रीचंद जैन,भगवंतशरण जौहरी, वैद्य बसंतीलाल जी और भी कई।
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34-पिताजी ने पारम्परिक अध्ययन के लिये मुझे दो संस्कृत विद्वानों के पास भेजा। एक थे-टिल्लू शास्त्री और दूसरे थे प्रज्ञाचक्षु दयाशंकर वाजपेयी। वाजपेयी जी देख तो नहीं सकते थे ,लेकिन लोकव्यवहार खूब जानते थे। मुझे आहट से पहचान जाते थे। उन्होंने मुझे कादम्बरी पढाई। उनकी मेधा असाधारण थी। वे फ्रीगंज में रहते थे।
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35-छत्रीचौक में ही कोने में था सरकारी दवाखाना। वहाँ बैठते रहे लम्बे समय तक डाॅ. ज्ञानचंद रतन। तसल्ली से देखते और उपचार लिखते।
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36-वहीं पास में धार जाने के लिये बस मिलती थी। दिनभर में कुल तीन बसें थीं-कुक्षी-उज्जैन,धार-उज्जैन,मांडव -उज्जैन। बाद में ये बसें बुधवारिया से जाने लगी।
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37-सावन में जब शिप्रा में बाढ आती ,तब पूरा शहर बाढ देखने के लिये उमड़ता था। उत्सव की तरह लगता था तब।
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38-महाकाल की सवारी का स्वरूप तब भिन्न था। जन-सामान्य की पहुँच पालकी तक थी। पालकी में रखे हुए केले हम झोली भरकर ले आते थे।तत्कालीन कलेक्टर एम.एन.बुच साहब सवारी के साथ चलते थे।
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39-महाकाल मंदिर में सीधे पहुँच जाते। कोई रोक-टोक नहीं थी। भीड़ इतनी नहीं होती थी। शान्ति से बैठकर अभिषेक करते। पूरा महिम्नस्तोत्र का पाठ गर्भगृह में हो जाता था।
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40-कोटितीर्थ जब खाली किया जाता,तब हम नीचे तक उतर जाया करते। कई बार नीचे बीचों -बीच स्थापित शिवलिंग को छूकर लौटते।
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41- नीलगंगा में छुमछुम बाबा की दरगाह पर पिताजी प्रतिदिन जाते थे। कभी-कभी हमें भी ले जाते। जब घर पर कोई बीमार होता ,तब वहाँ की झाड़नी से ठीक भी हो जाता था। बाबा की दरगाह पर सालाना उर्स में सत्यनारायण की कथा भी होती। मालपूए बँटते।बड़ा सुकून मिलता था वहाँ।
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42-बक्षीबाजार में तब सुंदर डेरी थी,और उसके पास पीजीबीटी हाॅस्टल था। वहाँ कुछ न कुछ गतिविधि चलती रहती थी।
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43- कुछ दुकानों पर जाना ही अच्छा लगता था। उनमें से प्रमुख थीं-शोभाराम सुगंधी की दुकान,नित्य उपयोगी वस्तु भंडार,बजरंग सेव भंडार, भगत जी की दुकान,आगरा वाला,
पिंडावाला,श्रीकृष्ण भक्ति भंडार, नाहटा बुक डिपो( सस्ते में मूल्यवान् किताबें मिल जाती थी ),रामी ब्रदर्स और भी कई।
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44-महाकाल रोड़ पर जब हम रहते थे,सामने अपंग सेवाश्रम था। एक दिव्यांग रोज सुबह जोर-जोर से “अपूऽऽहम्” बोलता था। उसकी आवाज से ही हमारी नींद खुलती थी।
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45-हम कुछ दोस्त सायकल पर पीछे एक-दूसरे को बैठाकर पूरा उज्जैन घूम आते थे ।गढकालिका,कालभैरव,मंगलनाथहोकर कालियादेह महल तक जाकर आ जाते थे। टिफिन साथ में ले जाते। वे दिन अब भी याद आते हैं।
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46-1966-67 में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति थे,और सुमन जी माधव काॅलेज के प्रिंसिपल।दोनों के बीच कुछ न कुछ चलता रहता । पूरे शहर में चर्चाएँ होती रहती थी।
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47- फ्रीगंज में घंटाघर के पास मोगरे बिल्डिंग में ऊपर पद्मश्री वेंकटाचलम् जी रहते थे, नीचे दैनिक भास्कर का कार्यालय था। ठाकुर शिवप्रसादसिंह यहीं बैठते ।कोई भी सीधे जाकर उनसे मिल सकता था।
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48-1963 से लेकर 65-66तक संतोषीमाता का व्यापक प्रभाव था। घर-घर में शुक्रवार का दिन गुड़-चने से महकता रहता। संतोषीमाता के व्रत की कथा के संवाद सबको मुँह-जबानी याद थे। व्रत-उद्यापन में बुलाया जाता,तो खुशी-खुशी जीमने पहुँच जाते।
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49-गोआ मुक्ति आन्दोलन का असर उज्जैन में भी था। बैठकें होतीं। भाषण सुनने हम भी जाते। शहीद राजाभाऊ महाकाल के किस्से शहर में खूब मशहूर थे।
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50- 1956 में पहली बार सिंहस्थ की शाही सवारी तब देखी थी,जब हम सतीगेट वाले मकान में रहते थे। सब तरह के जुलूस भी वहीं से निकलते थे। शायद1956-57 में इंदिरा गांधी की शोभायात्रा निकली थी। वे या तो खुली जीप में थी या बग्घी में। उनके दोनों तरफ राजीव और संजीव थे। हो सकता है,वह आमचुनाव के सिलसिले में हो।

 

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