सांदीपनि परम तेजस्वी तथा सिद्ध ऋषि थे, सांदीपनि, का अर्थ ‘देवताओं के ऋषि’ होता है |
उज्जैन ऋषि सांदीपनि की तप स्थली रही | यहां महर्षि ने घोर तपस्या की थी। इसी स्थान पर महर्षि सांदीपनि ने वेद, पुराण, शास्त्रादि की शिक्षा हेतु आश्रम का निर्माण करवाया था। महाभारत, श्रीमद्भागवत, ब्रम्ह्पुराण, अग्निपुराण तथा ब्रम्हवैवर्तपुराण में सांदीपनि आश्रम का उल्लेख मिलता है। गुरु सांदीपनि अवन्ति के कश्यप गोत्र में जन्मे ब्राह्मण थे। वे वेद, धनुर्वेद, शास्त्रों, कलाओं और आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान थे।
महर्षि सांदीपनि के गुरुकुल में वेद- वेदांतों और उपनिषदों सहित चौंसठ कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। साथ ही न्याय शास्त्र, राजनीति शास्त्र, धर्म शास्त्र, नीति शास्त्र, अस्त्र-शस्त्र संचालन की शिक्षा भी दी जाती थी। गुरुकुल में दूर-दूर से शिष्यगण शिक्षा प्राप्त करने आते थे। यहां प्रवेश के पहले यज्ञोपवीत संस्कार करवाया जाता था एवं शिष्यों को आश्रम व्यवस्था के अनुसार ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना होता था। आश्रम में प्रवेश के समय शिष्यों को गुरु को गोत्र के साथ पूरा परिचय देना होता था।
भगवान श्रीकृष्ण, उनके सखा सुदामा और भाई बलराम ने सांदिपनी आश्रम ने शिक्षा ग्रहण की थी, यहीं श्रीकृष्ण ने पट्टी पर अंक लिखकर धोया था। यहां अंकों का पात होने से इसे अंकपात तीर्थ भी कहा जाता है। गुरु महर्षि सांदिपनी श्रीकृष्ण की लगन और मेहनत से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें जगत गुरु की उपाधि दी। तभी से श्रीकृष्ण पहले जगत गुरु माने गए।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्री कृष्ण लगभग ५५०० वर्ष पूर्व द्वापर युग में यहां आये थे। भगवान श्री कृष्ण ने ६४ दिनों के अल्प समय में सम्पूर्ण शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण कर ली थी। १८ दिनों में १८ पुराण, ४ दिनों में ४ वेद , ६ दिनों में ६ शास्त्र, १६ दिनों में १६ कलाएं, २० दिनों में गीता का ज्ञान, उसके साथ ही गुरु दक्षिणा और गुरु सेवा। ६४ दिनों में शिक्षा पूर्ण हो जाने के बाद महर्षि सांदीपनि ने श्रीकृष्ण से कहा,” मेरे पास जो भी ज्ञान था वो तो में आपको दे चुका हुं, आपकी शिक्षा पूर्ण होती है”। फिर श्री कृष्ण के गुरु दक्षिणा देने की बात पर महर्षि बोले- “आप तो स्वयं प्रभु हैं, मैंने क्या दिया है आपको ? तब गुरु शिष्य परंपरा का निर्वाह करने के लिए श्री कृष्ण ने कहा- “पर गुरुदेव गुरु दक्षिणा स्वरूप कुछ आदेश तो करना ही होगा”।
उत्तर स्वरुप महर्षि ने अपनी पत्नी सुषुश्रा को उनके बदले कुछ माँगने को कहा। गुरु माँ ने गुरु दक्षिणा के रूप में अकाल मृत्यु को प्राप्त अपने पुत्र का जीवनदान माँगा। सारी सृष्टि के रचयिता विष्णु रूपी भगवान श्री कृष्ण अपनी गुरुमाता के दुःख को कैसे देख सकते थे।
भगवान सीधे समुद्र किनारे पहुंचे जहाँ सांदीपनि का पुत्र पुनर्दत्त खोया था, भगवान ने समुद्र का आह्वान किया और सागर हाजिर हो गए. भगवान ने सागर से सांदीपनि का पुत्र लौटने कहा तो सागर ने बताया के मेरे गर्भ में एक दैत्य रहता है उसने ही गुरु सांदीपनि के पुत्र को निगल लिया है. इस पर भगवान तुरंत समुद्रतल में उतर गए, वंहा उन्होंने पाञ्चजन्य नाम के राक्षस को मार दिया पर फिर भी गुरु पुत्र नहीं मिला.
इस पर भगवान यमपुरी पहुँच गए और यमराज से गुरु पत्र की मांग की तो यमराज ने पहले अनजाने में युद्ध किया और समझ आने पर गुरु पुत्र लौटा दिया. कृष्ण ने गुरुमाता को उनका खोया पुत्र सौंपा और अपनी गुरु दक्षिणा पूर्ण की।