डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर (4 मई 1919 – 3 अप्रैल 1988) भारत के एक प्रमुख पुरातत्वविद् थे। उन्होंने भोपाल के निकट भीमबेटका के प्राचीन शिलाचित्रों का अन्वेषण किया। अनुमान है कि यह चित्र ४०,००० वर्ष पुरानें हैं। वे संस्कार भारती से संबद्ध थे।
1975 में उन्हें पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित किया गया। श्री वाकणकर ने ही लुप्त हुई सरस्वती नदी के भूमिगत मार्ग को सेटेलाईट की मदद से खोजा। केन्द्रीय भूमितल जल प्राधिकरण के अध्यक्ष डा. डी.के. चढ्ढा ने जुलाई 1999 में जैसलमैर (राजस्थान) के पास 8 क्षेत्रों में सम्पन्न हुए विस्तृत उपग्रहीय तथा भूभौतिकीय सर्वेक्षणों पर आधारित सरस्वती परियोजना के इन परिणामों को उद्घोषित किया कि भूमि के नीचे 30 से 60 मीटर की गहराई में सरस्वती नदी का पुरातन जलमार्ग विद्यमान है।इस दिशा में स्व. बाबा साहब आपटे और स्व. मोरोपन्त पिंगले से प्रेरणा प्राप्त कर पद्मश्री डा. वी.एस. वाकणकर ने इतिहास संकलन परियोजना के माध्यम से प्रयास आरम्भ किया। उन्होंने समर्पित शोधकर्ताओं के एक दल के साथ सरस्वती नदी के किनारे-किनारे एक मास लम्बी सर्वेक्षण यात्रा आरम्भ की जिसमें पुरातत्वविद्, भूगर्भ विशेषज्ञ, हिमनद विशेषज्ञ, लोक कलाकार और छायाकार सम्मिलित थे।यजुर्वेद की वाजस्नेयी संहिता ३४.११ में कहा गया है कि पांच नदियाँ अपने पूरे प्रवाह के साथ सरस्वती नदी में प्रविष्ट होती हैं, ये पांच नदियाँ पंजाब की सतलुज, रावी, व्यास, चेनाव और दृष्टावती हो सकती हैं। वी. एस वाकणकर के अनुसार पांचों नदियों के संगम के सूखे हुए अवशेष राजस्थान के बाड़मेर या जैसलमेर के निकट पंचभद्र तीर्थ पर देखे जा सकते है। दुर्भाग्यवश डा. वाकणकर के असमय निधन से इसमें व्यवधान पड़ गया।
डॉ॰ वाकणकर जी ने अपना समस्त जीवन भारत की सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने में अर्पित किया। उन्होंने अपने अथक शोध द्वारा भारत की समृद्ध प्राचीन संस्कृति व सभ्यता से सारे विश्व को अवगत कराया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में आने पर उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में सामाजिक और शैक्षिक उत्थान कार्य किया, लगभग 50 वर्षों तक जंगलों में पैदल घूमकर विभिन्न प्रकार के हजारों चित्रित शैल आश्रयों का पता लगाकर उनकी हुबहू स्केच बना कर संगृहीत किया। तथा देश विदेश में इस विषय पर विस्तार से लिखा, व्याख्यान दिए और प्रदर्शनी लगाई। प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व के क्षेत्र में डॉ॰ वाकणकर ने अपने बहुविध योगदान से अनेक नये पथ का सूत्रपात किया।
उनके द्वारा स्थापित पुरातत्व शोध संस्था अभी भी उज्जैन में कार्यरत है।उनके नाम से एक राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया जाता है।