रवीन्द्र नाथ टैगोर ने एक सुन्दर छोटा सा गीत लिखा है, उस गीत का अभिप्राय है- खोजता हूँ प्रभु को जन्मों-जन्मों से. कभी उसकी झलक मिल जाती है, कभी दूर किसी सितारे के पास उसकी आकृति दिखाई देती है. कभी उसकी छाया दिखाई देती है. जब वहाँ पहुँचता हूँ, तो वह और दूर चला जाता है. ऐसे ही जन्मों –जन्मों तक भटका हूँ. लकिन एक दिन मेरी यात्रा पूरी हो गई और वहाँ तक पहुँच गया जहाँ उसका वास है. सीढ़ियों पर चढ़कर दरवाजे की सांकल बजाने ही वाला था कि मन में सवाल उठा कि कभी आज प्रभु मिल गया तो फिर आगे क्या होगा. फिर क्या करूँगा. अब तक उसी की खोज में जन्म-जन्मांतर बिताए हैं, उसकी खोज में व्यस्त रहता था. दौड़ता रहता था. मैं कुछ कर रहा था और पा रहा था. एक यात्रा थी. मंजिल थी आगे. मैं रसलीन था. उसको पाने की राह में मैं ओरों से आगे था. इस अहंकार से तृप्ति भी थी. आज वह मिल गया तो आगे अब मंजिल नहीं, आशा नहीं. रवीन्द्र लिखते हैं मैंने वह सांकल छोड़ दी. कहीं कोई आवाज़ न हो जाए इसलिए अपने जूते हाथ में लेकर सीढियाँ उतरता हूँ, और उसके बाद जो भागा तो पलट कर नहीं देखा. अब भी मैं ईश्वर को खोजता हूँ, अब भी मैं गुरूओं से उसका ठिकाना पूछता हूँ. जबकि ह्रदय के अंत:स्थल में मैं भलीभांति जानता हूँ, कहाँ है उसका मार्ग. अब भी मैं उसका घर खोजता हूँ, जबकि मुझे पहचान है उसके घर की. अब मैं उसके घर के रास्ते से बचकर ही उसे खोजता हूँ. कहीं वो मिल न जाए, कहीं वो मिल न जाए.
कहीं वो मिल न जाए-
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