यह लेख उन विद्यार्थियों के लिए नहीं है, जिन्होने १२वी की परीक्षा और उसके पश्चात प्रतियोगी परीक्षाओं में शानदार सफलता अर्जित की है. यह लेख उन विद्यार्थियों के लिए जिन्हें वो नहीं मिल पाएगा जो वे चाहते थे या जो समझौता कर रहे हैं या जो निराश हैं. इन विद्यार्थियों को असफल कहना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा. दरअसल ईमानदारी से की गई मेहनत का परिणाम असफलता हो ही नहीं सकता. मनमाफिक न हो यह हो सकता है. मेहनत का फल तो मिलना ही है, हो सकता है आज न मिले.
इंजीनियरिंग के प्रवेश की सच्चाई देखें, तो देश में कुछ ५-६ हजार (सामान्य) सीट आई.आई.टी की है और ८-१० हजार सीट एन आई टी की हैं. इन सीटों के लिए लाखों बच्चे दिन-रात मेहनत करते हैं. कई घर छोड़ कोटा या किसी बढ़े शहर जाते हैं. निश्चित रूप से समाज समृद्ध हुआ है, जागरूकता भी बड़ी है. कस्बों व गाँव के बच्चे आगे आ रहें है और कड़ी चुनौती दे रहे हैं. प्रतिभाशाली वच्चों की कमी नही है, लेकिन हम उनके स्तर के योग्य महाविद्यालयों से उन्हें वंचित कर रहे हैं, क्योकि उच्चस्तरीय शिक्षण संस्थानों की संख्या सीमित है.
स्कूल से महाविद्यालय के बीच का यह समय कठिन और नाजुक होता है. महत्वाकांक्षा पूर्ण न होने पर बच्चे अपने को अपराधी महसूस करते हैं. कुछ यह भी मान लेते हैं की अब कुछ नहीं हो सकता. माता-पिता या शिक्षकों की लिए यह जिम्मेदारी का समय होता है. बच्चों को प्रोत्साहित करते रहें. उनका आत्मविश्वास बनाए रखें. वे स्वस्थ रहें इसका विशेष ध्यान रखें. उन्हें यह भी समझाएं कि जीवन में अवसरों की कोई कमी नहीं है. दूसरे क्षेत्रों में भी अपार संभावनाएं हैं. कमी अगर होगी तो केवल उत्साह की, सतत प्रयास की. माता-पिता को भी न तो निराश होना है और न ही असफलता के पश्चात उन्हें बच्चे के प्रति अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना चाहिए. अपने माता-पिता की इच्छा पूरी न कर पाए यह सोचकर बच्चे ज्यादा दुखी होते हैं. अपने अधूरे सपने, अधूरी महत्वाकांक्षा को अपने बच्चों पर न लादें. किसी अन्य बच्चे से अपने बच्चे की तुलना न करें, कम से कम बच्चे के सामने बिलकुल नहीं. हाँ जीत का जज्बा अवश्य पैदा करना है. यह समय है, जब हम बच्चे को हार स्वीकार करना सीखा सकते है. गिरकर उठना सीखा सकते है. उन्हें यह सिखाने का अवसर है कि लक्ष्य ऊंचे अवश्य हो पर बेकअप या विकल्प के लिए भी तैयार रहें. इस स्वर्णिम अवसर पर हमें उन्हें सीखाना है कि पहले तो जिंदगी रेस नहीं है और अगर है भी तो सौ मीटर की नहीं यह मैराथन रेस है.
प्रकृति में सभी फूल एक साथ एक ही मौसम में नहीं खिलते. झुलसती धूप में भी गुलमोहर और अमलतास के फूल खिलते हैं. कुछ बच्चे स्नातक होने के पश्चात अपनी पूर्ण क्षमता का उपयोग कर पाते है. इस वर्ष आई. ए. एस. की परीक्षा में प्रावीण्य सूची में आए विद्यार्थी देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से नहीं है. बहुत से नवयुवक भले ही पढ़ाई में अग्रिम पंक्ति में न रहे हो लेकिन व्यवहारिक जीवन में या व्यवसाय में आने के पश्चात अदभुत प्रतिभा का परिचय देते है. कई बार ये अपनी कक्षा के सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थियों से भी आगे निकल जाते हैं. हमारे एक प्रोफसर कहा करते थे की यह इंजीनियरिंग की शिक्षा तुम्हारे व्यक्तित्व में केवल दो आयाम ही विकसित कर पाएगी. दो आयाम यानि तुम एक पतली शीट की तरह नाजुक होगे. अपने व्यक्तित्व में तीसरा आयाम विकसित करो. इन ३-४ वर्षों में अपनी भाषा अपनी अभिव्यक्ति को विकसित करो. यह चरित्र निर्माण और व्यक्तित्व निर्माण का समय है. अच्छी आदते डालने का समय है. आप कमतर महाविद्यालय में पढकर भी बहुत प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी हो सकते है. आप अपने ज्ञान को रूपए नहीं डॉलर की तरह उपयोग कर सकते है. व्यावसायिक परिक्षा मंडल के पूर्व निदेशक डॉ. आशोक गुप्ता कहते है “महाविद्यालय से अधिक यह महत्वपूर्ण हो जाता है की विद्यार्थी अपने यह ४ वर्ष कैसे गुजारता है.”
असफलता तब असफलता हो जाती है, जब हम और अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित न हों. अब्राहम लिंकन को जीवन के ५५ वर्ष बाद सही माने में सफलता मिली. श्री अमृतलाल वेगड़ ने सेवानिवृति के पश्चात नर्मदा की पैदल यात्रा की. नर्मदा परिक्रमा का वृतांत लिखा और विख्यात हो गए. उदाहरणों की कमी नहीं है, कमी है केवल हार मान लेने की, विश्वास खो देने की.
इधर आरक्षण नीति भी प्रतिभाओं का निरादर कर रही है. फिर इसका लाभ भी अधिकतर वे ही ले रहे हैं, जो अब पिछड़े है ही नहीं. इस नीति के कारण एक ओर आरक्षित छात्र हीनता से ग्रस्त होते हैं वहीं दूसरी ओर सामान्य वर्ग के छात्र निराशा ओर आक्रोश से भरे होते हैं. छात्र आरक्षित हो या अनारक्षित उन्हें यह जान लेना चाहिए कि इंजीनियरिंग ( विशेषकर कोर ब्रांच) की पढ़ाई आसान नहीं है. यह एक औसत विद्यार्थी के लिए बहुत कठिन है. केवल प्रवेश पा लेने से इंजीनियर बनने का सपना देखना उचित नहीं है. विद्यार्थियों के इंजीनियरिंग के प्रति आकर्षण ने इस शिक्षा को व्यवसाय बना दिया है. आज अनेक महाविद्यालय हैं. जितने छात्र प्रवेश परीक्षा देते हैं, करीब उतनी ही सीटें उपलब्ध हैं. प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कमजोर छात्रों और निजी महाविद्यालयों का ध्यान रखते हुए इंजीनियरिंग की परीक्षा का स्तर गिरा रहा है. पूराने शिक्षकों और इंजीनियरों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि इंजीनियरिंग की परीक्षा भी अब छात्र गाईड से पढकर उत्तीर्ण कर लेते हैं. स्तरहीन महाविद्यालयों की कमी नहीं है और प्रीमियर संस्थाओं में प्रवेश के लिए एड़ी-चोटी का प्रयास करना पडता है.
यह सही है कि असंभव कुछ भी नहीं है फिर भी महत्वाकांक्षा के पूर्व अपनी योग्यता का बढ़ाना और परखना आवश्यक है. विज्ञापन और कोचिंग संस्थाओं ने ऐसा जाल बुना है कि विद्यार्थी किसी भी स्तर का हो अभिभावक और कोचिंग संस्था उसे आई आई टी या उच्च संस्थाओं की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए झोंक देते है. यह तो कार में ट्रक का वजन डालने जैसा है. भेडचाल कि तरह सभी कोटा या दूसरे या बढे शहर जा रहे हैं. यह करोड़ों रूपये का व्यवसाय है. कई विधार्थी इस मायाजाल से निराश या डिप्रेशन का शिकार होकर लौटते है, या कुछ बुरी आदतों के शिकार हो जाते है या स्वास्थ्य खराब कर लौटते है. लाखों रुपये खर्च करने से पूर्व अपने बच्चों की योग्यता को सच्चाई से परखना बहुत जरूरी है. प्रयास करने में भी कोई हर्ज नहीं है, लेकिन फिर असफलता को एक खेल भावना की तरह परिवार और छात्र को स्वीकार करना चाहिए. यह हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न न हो.
जीवन का उद्देश्य सफलता नहीं, सीखना होना चाहिए. फिर सफलता और असफलता की परिभाषाएँ व्यक्तिगत होती हैं. नोबेल पुरूस्कार प्राप्त करने के पश्चात जब एक चिकित्सक से पूछा कि आप खुश क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं, तो उनका कहना था कि मैं बहुत छोटे पुरूस्कार से खुश हो जाता अगर वह पुरूस्कार मुझे डांस के लिए मिलता. मैं जीवन में डांसर बनना चाहता था. इसी तरह एक बेईमान व्यक्ति की सफलता की परिभाषा बड़ा बंगला या कार हो सकती है. हो सकता है, एक मूल्यहीन समाज की भी यही परिभाषा हो. लेकिन एक ईमानदार व्यक्ति का अपना संतोष होता है, अपना स्वाभिमान होता है.
महाविद्यालय तो बांहे फैलाए खड़े हैं, लेकिन अगर बारहवीं या प्रवेश परीक्षा में अंक बहुत कम हैं, तो इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम में प्रवेश के पूर्व विचार अवश्य करें. दूसरे विकल्प को तलाशें. भले ही आप आरक्षित हो या अनारक्षित यह जान लें कि इंजीनियरिंग की सही शिक्षा आसान नहीं है. प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय को भी अपना स्तर नीचे गिराने के बजाय ऊंचा उठाना होगा. योग्य शिक्षकों की कमी है. बहुत से महाविद्यालयों में केवल स्नातक शिक्षक ही पढ़ा रहे हैं. योग्य शिक्षकों के अभाव में कोई भी शिक्षा अधूरी है. अभी तक हमारा समाज केवल भ्रष्ट अधिकारियों या इंजीनियरों या डॉक्टरों से त्रस्त है. भविष्य में तो अधिकारी, इंजीनियर या डॉक्टर भ्रष्ट और अयोग्य दोनों होंगे.